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तृतीय अध्याय ( मुद्रा प्रकरण )

घेरण्ड संहिता के तीसरे अध्याय का विषय मुद्रा है । जिसमें ऋषि घेरण्ड ने सिद्धियों की प्राप्ति के लिए पच्चीस मुद्राओं का वर्णन किया है । मुद्रा के फल को बताते हुए कहा है कि मुद्राओं का अभ्यास करने से साधक को स्थिरता प्राप्त होती है ।

मुद्रा वर्णन ( 25 )

महामुद्रा नभोमुद्रा उड्डीयानं जलन्धरम् । मूलबन्धं महाबन्धं महावेधश्च खेचरी ।। 1 ।। विपरीतकरी योनिर्वज्रोली शक्तिचालिनी । तडागी माण्डुकी मुद्रा शाम्भवी पचंधारणा ।। 2 ।। अश्विनी पाशिनी काकी मातङ्गी च भुजङ्गिनी । पञ्चविंशति मुद्राणि सिद्धदानीह योगिनाम् ।। 3 ।।

भावार्थ :- महामुद्रा, नभोमुद्र, उड्डीयान, जालन्धर, मूलबन्ध, महाबन्ध, महावेध, खेचरी, विपरीतकरणी, योनि, वज्रोली, शक्तिचालिनी, तडांगी, मांडवी, शाम्भवी, पञ्चधारणा ( पार्थिवी धारणा, आम्भसी धारणा, आग्नेयी धारणा, वायवीय धारणा, आकाशी धारणा ), अश्वनी, पाशिनी, काकी, मातङ्गी और भुजंगिनी यह पच्चीस ( 25 ) मुद्राएँ योगियों को सिद्धियाँ प्रदान करवाने वाली हैं । विशेष :- इस तीसरे अध्याय में ऋषि घेरण्ड ने पच्चीस मुद्राओं का वर्णन किया है । जो साधक को अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करती हैं । इन मुद्राओं में पाँच प्रकार की धारणाओं का भी वर्णन किया गया है । जो कि मुद्राओं के ही प्रकार हैं । परीक्षा में इससे सम्बंधित भी पूछा जाता है कि घेरण्ड संहिता में कितनी धारणाओं का वर्णन किया गया है ? जिसका उत्तर है पाँच । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि धारणाओं का वर्णन सप्तांग योग अथवा घेरण्ड संहिता के किस अंग में किया गया है ? जिसका उत्तर है योग के तीसरे अंग / तीसरे अध्याय में वर्णित मुद्राओं में । इसके साथ ही मुद्राओं में तीन प्रकार के बन्धों का भी वर्णन किया गया है :- उड्डीयान बन्ध, जालन्धर बन्ध व मूलबन्ध । इन तीनों बन्धों को एक साथ लगाने को महाबन्ध का नाम दिया गया है ।

मुद्राओं का फल

मुद्राणां पटलं देवि कथितं तव सन्निधौ । येन विज्ञातमात्रेण सर्वसिद्धि: प्रजायते ।। 4 ।।

भावार्थ :- हे देवी! ( यहाँ पर देवी शब्द भगवान शिव की ओर से माता पार्वती के लिए कहा गया है ) मैंने तुम्हारे सम्मुख ( सामने ) जिन मुद्राओं के समूह का वर्णन किया है । इन सभी को केवल जानने मात्र से ही साधक को सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं ।

मुद्राओं की गोपनीयता

गोपनीयं प्रयत्नेन न देयं यस्य कस्यचित् । प्रीतिदं योगिनाञ्चैव दुर्लभं मरुतामपि ।। 5 ।।

भावार्थ :- इन सभी मुद्राओं को पूरी तरह से गोपनीय रखना चाहिए । चाहे जिसको भी इनका ज्ञान नहीं देना चाहिए । यह मुद्राएँ देवताओं के लिए भी दुर्लभ ( प्राप्त करना कठिन हैं ) हैं । इनके अभ्यास से योगी साधक को आनन्द की प्राप्ति होती है । विशेष :- यहाँ पर चाहे जिसको भी इनका ज्ञान न देने से अभिप्राय यह है कि इनका ज्ञान हमेशा ही योग्य साधक को देना चाहिए । जो साधक इनका ज्ञान प्राप्त करने के लायक नहीं है । उसे कभी भी इनका ज्ञान नहीं देना चाहिए । इस प्रकार अयोग्य व्यक्ति को दिया गया ज्ञान कभी भी फलीभूत नहीं होता । अतः योग्य साधक को ही इनका उपदेश देना चाहिए ।

महामुद्रा विधि वर्णन

पायुमूलं वाम गुल्फे सम्पीड्य दृढ़यत्नतः । याम्यपादं प्रसार्याथ करे धृतपदाङ्गुल: ।। 6 ।। कण्ठ सङ्कोचनं कृत्वा भ्रुवोर्मध्ये निरीक्षीयत् । महामुद्राभिधा मुद्रा कथ्यते चैव सूरिभि: ।। 7 ।।

भावार्थ :- बायें पैर की एड़ी को गुदाद्वार के मूल भाग ( अंडकोशों व गुदाद्वार के बीच में ) पर पूर्ण प्रयास के साथ लगाते हुए उसको एड़ी से दबाएं । अब दायें पैर को सामने की तरफ फैलाते हुए दोनों हाथों से दायें पैर के अँगूठे को पकड़ें । इसके बाद अपने कण्ठ अर्थात् गले को सिकोड़ते हुए अपनी दोनों भौहों ( दोनों आँखों के बीच में स्थित आज्ञा चक्र पर ) के बीच में देखें । विद्वानों ने इसे महामुद्रा का नाम दिया है ।

महामुद्रा का फल

क्षयकासं गुदावर्त्तं प्लीहाजीर्णज्वरं तथा । नाशयेत्सर्वरोगांश्च महामुद्रा च साधनात् ।। 8 ।।

भावार्थ :- महामुद्रा के अभ्यास से साधक के क्षय व कासं रोग अर्थात् श्वास व बलगम सम्बन्धी रोग जैसे दमा व खाँसी आदि, गुदाद्वार के फोड़े या बवासीर व भगन्दर आदि रोग, प्लीहा ( मूत्र मार्ग से धातुओं का बहना ), पुराना बुखार आदि सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि महामुद्रा से कौन से रोग नष्ट होते हैं ? जिसका उत्तर ऊपर भावार्थ में दिया गया है ।

नभोमुद्र विधि व फल वर्णन

यत्र यत्र स्थितो योगी सर्वकार्येषु सर्वदा । ऊर्ध्वजिह्व: स्थिरो भूत्वा धारयेत् पवनं सदा । नभोमुद्रा भवेदेषा योगिनां रोगनाशिनी ।। 9 ।।

भावार्थ :- योगी को सदा अपने सभी कार्यों को करते हुए एक जगह स्थित अथवा स्थिर होकर अपनी जीभ को ऊपर आकाश की ओर करते हुए उससे वायु को धारण अर्थात् वायु का पान करना चाहिए । इसे नभोमुद्रा कहा जाता है । इसका अभ्यास करने से योगी साधकों के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । विशेष :- नभोमुद्रा के सम्बंध में पूछा जा सकता है कि नभोमुद्रा में साधक द्वारा किसका सेवन या पान किया जाता है ? जिसका उत्तर है वायु ।

उड्डीयान मुद्रा विधि व फल वर्णन

उदरे पश्चिमं तानं नाभेरूर्ध्वं तु कारयेत् । उड्डानं कुरुते यस्माद विश्रान्तं महाखग: । उड्डीयानं त्वसौ बन्धो मृत्युमातङ्गकेसरी ।। 10 ।। समग्राद् बन्धनादेतदुड्डीयानं विशिष्यते । उड्डीयाने समभ्यस्ते मुक्ति: स्वाभाविकी भवेत् ।। 11 ।।

भावार्थ :- पेट में स्थित नाभि प्रदेश व उससे ऊपर के भाग को पीछे की ओर खींचना उड्डीयान बन्ध कहलाता है । उड्डीयान बन्ध से प्राण ऊर्जा निरन्तर ऊपर की ओर उर्ध्वगामी होती है । यह उड्डीयान बन्ध मृत्यु रूपी हाथी के सामने शेर के समान होता है । इस उड्डीयान बन्ध को सभी बन्धों में विशिष्ट ( प्रमुख ) माना गया है । उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करने से साधक को बिना किसी विशेष प्रयास के स्वयं ही मुक्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । विशेष :- उड्डीयान बन्ध को सभी बन्धों ( उड्डीयान, जालन्धर व मूलबन्ध ) में श्रेष्ठ माना गया है । विद्यार्थियों के लिए यह उपयोगी जानकारी है । उड्डीयान बन्ध के सम्बंध में कुछ अन्य प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं । जैसे – किस यौगिक क्रिया से पूर्व हमें उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए ? जिसका उत्तर है नौलि क्रिया । उड्डीयान बन्ध में श्वास की स्थिति क्या होती है ? जिसका उत्तर है श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोककर अर्थात् बह्यवृत्ति प्राणायाम की स्थिति में उड्डीयान बन्ध का अभ्यास किया जाता है । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि प्राण का रेचन करके हमें उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए ।

जालन्धर बन्ध विधि व फल वर्णन

कण्ठ सङ्कोचनं कृत्वा चिबुकं हृदयेन्यसेत् । जालन्धर कृते बन्धे षोडशाधारबन्धनम् । जालन्धरमहामुद्रा मृत्योश्च क्षयकारिणी ।। 12 ।। सिद्धं जालन्धरं बन्धं योगिनां सिद्धिदायकम् । षण्मासमभ्सद्यो यो हि स सिद्धो नात्र संशय: ।। 13 ।।

भावार्थ :- किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर अपने कण्ठ को सिकोड़कर ठुड्डी को छाती पर लगाने को जालन्धर बन्ध कहते हैं । यह शरीर में स्थित सभी सोलह आधारों को बन्ध करता है अर्थात् इसके करने से सभी आधारों में भी अपने आप ही बन्ध लग जाता है । जालन्धर बन्ध नामक श्रेष्ठ मुद्रा के अभ्यास से मृत्यु का भी नाश हो जाता है । यदि निरन्तर छ: महीने तक जालन्धर बन्ध का अभ्यास किया जाए तो यह साधक को सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करता है । छ: महीने के अभ्यास से जालन्धर बन्ध सिद्ध हो जाता है । इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह अथवा शक नहीं है । विशेष :- जालन्धर बन्ध के सम्बंध में यह पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा अथवा बन्ध का अभ्यास करने से शरीर में स्थित सभी सोलह आधारों को बांधा अथवा स्थिर किया जा सकता है ? जिसका उत्तर जालन्धर बन्ध है । दूसरा यह भी पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा या बन्ध में सोलह आधारों का वर्णन किया गया है ? या पूछा जा सकता है कि जालन्धर बन्ध के अनुसार शरीर में कितने आधार माने गए हैं ? उत्तर है सोलह ( 16 ) । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि जालन्धर बन्ध कितने समय में सिद्ध हो जाता है ? उत्तर है छ: महीने में । ऊपर वर्णित प्रश्न परीक्षा की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं ।

मूलबन्ध विधि व फल वर्णन

पार्ष्णिना वामपादस्य योनिमाकुञ्चयेत्तत: । नाभिग्रन्थिं मेरुदण्डे सम्पीड्य यत्नतः सुधी: ।। 14 ।। मेढ्रं दक्षिणगुल्फे तु दृढबन्धं समाचरेत् । जराविनाशिनी मुद्रा मूलबन्धो निगद्यते ।। 15 ।। संसारसमुद्रं तर्त्तमभिलषति य: पुमान् । विरलेसुगुप्तो भूत्वा मुद्रामेनां समभ्यसेत् ।। 16 ।। अभ्यासाद् बन्धनस्यास्य मरुत्सिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् । साधयेद् यत्नतो तर्हि मौनी तु विजितालस: ।। 17 ।।

भावार्थ :- बुद्धिमान साधक पहले बायें पैर की एड़ी से योनिस्थान ( अंडकोशों के नीचे का स्थान ) को दबाते हुए अपने नाभि प्रदेश व मेरुदण्ड ( रीढ़ की हड्डी ) को प्रयत्नपूर्वक सीधा तानकर रखें । इसके बाद अपने दायें पैर की एड़ी से अपने लिङ्ग को अच्छी तरह से दबाकर रखें अर्थात् एड़ी को लिङ्ग के ऊपर स्थापित कर देना चाहिए । इस प्रकार यह मूलबन्ध नामक मुद्रा साधक के बुढ़ापे को खत्म करने वाली होती है । जो भी व्यक्ति इस जीवन रूपी समुन्द्र को पार करने की इच्छा रखता है, उसे कहीं एकांत स्थान पर जाकर स्थिर मन द्वारा इस मूलबन्ध मुद्रा का अच्छी प्रकार से अभ्यास करना चाहिए । इस मुद्रा के अभ्यास से साधक के सभी बन्धनों का नाश होता है और प्राण वायु की सिद्धि प्राप्त होती है । अतः योग साधक को मौन भाव से युक्त होकर आलस्य को पूरी तरह से त्यागते हुए इस भली- भाँति इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- मूलबन्ध के अभ्यास से योगी को कभी बुढ़ापा नहीं आता व उसके सभी बन्धन समाप्त हो जाते हैं । साथ ही इसके अभ्यास से साधक संसार रूपी सागर को पार कर लेता है ।

महाबन्ध वर्णन

वामपादस्य गुल्फेन पायुमूलं निरोधयेत् । दक्षपादेन तद्गुल्फं संपीड्य यत्नतः सुधी: ।। 18 ।। शनै: शनैश्चालयेत् पार्ष्णिं योनिमाकुञ्चयेच्छन: । जालन्धरे धारयेत् प्राणं महाबन्धो निगद्यते ।। 19 ।।

भावार्थ :- बायें पैर की एड़ी से गुदामार्ग को दबाकर उसका निरोध करते हुए दायें पैर की एड़ी से योनिस्थान को प्रयास पूर्वक दबाएं । इसके बाद धीरे- धीरे से गुदास्थान व योनिस्थान का आकुंचन ( उसे सिकोड़ें ) करे । इसके साथ ही प्राणवायु को शरीर के अन्दर रोकते हुए जालन्धर बन्ध लगाएं । इस विधि को महाबन्ध कहा गया है । विशेष :- ऊपर वर्णित महाबन्ध की विधि में मूलबन्ध व जालन्धर बन्ध की विधियाँ ही प्रयोग की गई हैं । उड्डीयान बन्ध का इसमें प्रयोग नहीं किया गया है ।

महाबन्ध फल

महाबन्ध: परो बन्धो जरामरणनाशन: । प्रसादादस्य बन्धस्य साधयेत् सर्ववाञ्छितम् ।। 20 ।।

भावार्थ :- महाबन्ध मुद्रा के अभ्यास से बुढ़ापा व मृत्यु का नाश होता है । महाबन्ध को सभी बन्धों में श्रेष्ठ माना गया है । इस मुद्रा के प्रभाव से साधक की सभी इच्छाएँ ( कामनाएँ ) पूर्ण होती हैं । विशेष :- महाबन्ध मुद्रा मृत्यु व बुढ़ापा दोनों का नाश करता है । इसे केवल सभी बन्धों में श्रेष्ठ माना गया है न कि सभी मुद्राओं में । इससे साधक की सभी कामनाएँ भी पूर्ण होती हैं । यह सब परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी है ।

महावेध की उपयोगिता

रूपयौवनलावण्यं नारीणां पुरुषं विना । मूलबन्धमहाबन्धौ महावेधं विना तथा ।। 21 ।।

भावार्थ :- जिस प्रकार पुरुष के बिना नारी के रूप ( सुन्दर रंग ), यौवन ( जवानी ) व लावण्य ( मनमोहक सुंदरता ) का का कोई महत्त्व नहीं है अर्थात् पुरुष के बिना यह सब निरर्थक होता है । ठीक उसी प्रकार महावेध मुद्रा के बिना मूलबन्ध व महाबन्ध का कोई महत्त्व नहीं है अर्थात् महावेध के बिना मूलबन्ध व महाबन्ध का अभ्यास करना निरर्थक है । विशेष :- इस श्लोक में महावेध मुद्रा के महत्त्व को बताया गया है । परीक्षा की दृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा का अभ्यास किये बिना मूलबन्ध व महाबन्ध मुद्रा को निरर्थक अथवा फलहीन बताया गया है ? जिसका उत्तर है महावेध मुद्रा ।

महावेध मुद्रा विधि

महाबन्धं समासाद्य उड्डानकुम्भकं चरेत् । महावेध: समाख्यातो योगिनां सिद्धिदायक: ।। 22 ।।

भावार्थ :- पहले साधक महाबन्ध मुद्रा की स्थिति में बैठे इसके बाद उड्डीयान बन्ध को लगाते हुए कुम्भक ( प्राणवायु को बाहर रोकें ) का अभ्यास करें । इस प्रकार यह महावेध मुद्रा कहलाती है । जो योगियों को सिद्धि प्रदान करती है । विशेष :- महावेध मुद्रा में उड्डीयान बन्ध, जालन्धर बन्ध व मूलबन्ध तीनों बन्धों का प्रयोग किया जाता है । परीक्षा में इससे सम्बंधित प्रश्न पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा में तीनों बन्ध एक साथ लगाए जाते हैं ? जिसका उत्तर है महावेध मुद्रा ।

महावेध मुद्रा का फल

महाबन्धमूलबन्धौ महावेध समन्वितौ । प्रत्यहं कुरुते यस्तु स योगी योगवित्तम: ।। 23 ।। न मृत्युतो भयं तस्य न जरा तस्य विद्यते । गोपनीय: प्रयत्नेन वेधायं योगिपुङ्गवै: ।। 24 ।।

भावार्थ :- जो योग साधक प्रतिदिन मूलबन्ध व महाबन्ध के साथ महावेध मुद्रा का अभ्यास करता है, वह योग का ज्ञानी अथवा श्रेष्ठ योगी कहलाता है । जिसे न तो कभी बुढ़ापा सताता है और न ही वह कभी मृत्यु से भयभीत होता है । तभी सभी श्रेष्ठ योगियों ने महावेध मुद्रा की विधि को प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखने की बात कही है । विशेष :- महावेध मुद्रा करने वाले योगी को श्रेष्ठ योगी माना गया है । इसके अलावा यह मुद्रा बुढ़ापा व मृत्यु के प्रभाव को खत्म कर देती है ।

खेचरी मुद्रा विधि

जिह्वाधो नाडीं सञ्छिन्नां रसनां चालयेत् सदा । दोहेयेन्नवनीतेन लौहयन्त्रेण कर्षयेत् ।। 25 ।। एवं नित्यं समभ्यासाल्लम्बिका दीर्घतां व्रजेत् । यावद् गच्छेद् भ्रुवोर्मध्ये तदागच्छति खेचरी ।। 26 ।। रसनां तालुमध्ये तु शनै: शनै: प्रवेशयेत् । कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा । भ्रुवोर्मध्ये गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।। 27 ।।

भावार्थ :- जीभ के नीचे स्थित नाड़ी ( जो जीभ गले से जोड़ कर रखती है ) को हल्का सा काटकर सदा उसको चलाना चाहिए अर्थात् जीभ को पकड़कर उसे आगे व पीछे की ओर खींचना चाहिए । उसके बाद जीभ के ऊपर मक्खन लगाकर उसका दोहन ( जिस प्रकार गाय अथवा भैंस का दूध निकालते हुए उनके स्तनों को खींचते हैं ) करना चाहिए और फिर लोहे की चिमटी से जीभ को पकड़कर उसे आगे की तरफ खींचे । इस प्रकार का अभ्यास प्रतिदिन करने से साधक की जीभ लम्बी हो जाती है और वह दोनों भोहों ( आज्ञा चक्र ) तक पहुँच जाती है । जैसे ही साधक की जीभ दोनों भौहों के बीच तक पहुँच जाती है वैसे ही उसकी खेचरी सिद्ध होने लगती है । इसके बाद जीभ को धीरे- धीरे उलटते हुए ( उल्टी करके ) तालु प्रदेश ( गले के बीच में ) के पीछे स्थित छिद्र में उसको प्रविष्ट ( उसका प्रवेश ) करवाएं और दृष्टि को दोनों भौहों के बीच में स्थिर करें अर्थात् दोनों भौहों के बीच में देखें । इसे खेचरी मुद्रा कहा जाता है । विशेष :- खेचरी मुद्रा सभी मुद्राओं में अपना प्रमुख स्थान रखती है । इसे करने के लिए साधक को काफी समय व धैर्य का पालन करना पड़ता है । साथ ही इसे किसी अनुभवी योगी से ही सीखा जा सकता है । खेचरी मुद्रा करते हुए जब जीभ का दोहन किया जाता है तब साधक को ताजे मक्खन का प्रयोग करना अनिवार्य होता है साथ ही उसे लोहे की किसी चिमटी से खींचना पड़ता है । क्योंकि मक्खन लगने के बाद जीभ को हाथ से नहीं खींचा जा सकता । यह कुछ उपयोगी जानकारी थी जिसके सम्बन्ध में पूछा जा सकता है ।

खेचरी मुद्रा का फल

न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते । न च रोगो जरा मृत्युर्देवदेह: स जायते ।। 28 ।। नाग्निना दह्यते गात्रं न शोषयति मारुत: । न देहं क्लेदयन्त्यापो दंशयेन्न भुजङ्गम: ।। 29 ।। लावण्यं च भवेद् गात्रे समाधिर्जायते ध्रुवम् । कपालवक्त्र संयोगे रसना रसमाप्नुयात् ।। 30 ।। नाना रस समुद् भूतमानन्दं च दिने दिने । आदौ लवणक्षारं च ततस्तिक्तं कषायकम् ।। 31 ।। नवनीतं घृतं क्षीरं दधितक्रमधूनि च । द्राक्षारसं च पीयूषं जायते रसनोदकम् ।। 32 ।।

भावार्थ :- जो साधक खेचरी मुद्रा का अभ्यास करता है उसे न तो कभी मूर्च्छा ( अचेतन अवस्था ) आती है, न ही उसे भूख व प्यास परेशान करती है, न उसे कभी आलस्य आता है, न ही उसे कभी कोई रोग होता है, न ही वह कभी बूढ़ा होता है और न ही वह कभी मृत्यु को प्राप्त होता है । बल्कि उसका शरीर देवताओं के समान कान्तिमान हो जाता है । उसके शरीर को अग्नि जला नहीं सकती, वायु सुखा नहीं सकती, पानी उसे गीला नहीं कर पाता है और न ही साँप के काटने ( डसने ) का उस पर कोई प्रभाव होता है । उसका शरीर सदा कान्तिमान अर्थात् तेजयुक्त होता है । उसे निश्चित रूप से समाधि की प्राप्ति होती है । कपाल और मुहँ का संयोग अर्थात् कपाल व मुख में एकरूपता होने से उसकी जीभ को अनेक या सभी प्रकार के रसों की प्राप्ति हो जाती है । उसे दिन – प्रतिदिन अनेक प्रकार के रसों का अनुभव होता रहता है । इस क्रम में सबसे पहले लवण ( नमकीन खाद्य पदार्थों जैसा स्वाद ) और क्षारीय ( जामुन, गाजर, नींबू आदि पदार्थों जैसा स्वाद ) उसके बाद तिक्त ( तीखे जैसे- मिर्च व मसालों जैसा स्वाद ) और कषाय ( कड़वे जैसे- करेला आदि खाद्य पदार्थों जैसा स्वाद ) रसों का अनुभव होता है । इनके बाद साधक को ताजे मक्खन, घी, दूध, दही, तक्र ( लस्सी ), शहद, अंगूरों का रस व उसके बाद अन्त में अमृत जैसे रसों का अनुभव अथवा उत्पत्ति होती है । विशेष :- खेचरी मुद्रा के लाभों की सूची अत्यंत लम्बी है । इसके अलावा इसे मुख्य मुद्राओं में से एक माना गया है । अतः सभी विद्यार्थी इन सभी श्लोकों को ध्यानपूर्वक पढ़ें । परीक्षा की दृष्टि से यह अत्यंत उपयोगी हैं ।

विपरीतकरणी मुद्रा विधि

नाभिमूलेवसेत् सूर्यस्तालुमूले च चन्द्रमा: । अमृतं ग्रसते सूर्यस्ततो मृत्युवशो नर: ।। 33 ।। ऊर्ध्वं च योजयेत् सूर्यञ्चन्द्रञ्च अध आनयेत् । विपरीतकरणी मुद्रासर्वतन्त्रेषु गोपिता ।। 34 ।। भूमौ शिरश्च संस्थाप्य करयुग्मं समाहित: । उर्ध्वपाद: स्थिरो भूत्वा विपरीतकरी मता ।। 35 ।।

भावार्थ :- मनुष्य के शरीर में सूर्य नाभि के मूलभाग अर्थात् नाभि के बीच में निवास करता है और चन्द्रमा तालु प्रदेश अर्थात् गले में रहता है । चन्द्रमा से स्त्रावित ( बहने ) होने वाले रस का सूर्य द्वारा ग्रहण कर लेने से ही साधक की मृत्यु होती है । अपने सूर्य ( नाभि प्रदेश ) को ऊपर की ओर व चन्द्रमा ( तालु प्रदेश ) को ( नीचे की ओर ले जाने को ही विपरीतकरणी मुद्रा कहा गया है । जो सभी तन्त्र के ग्रन्थों में गोपनीय अर्थात् जिसे तन्त्र विद्या के सभी ग्रन्थों में गुप्त रखने की बात कही गई है । इसके लिए साधक को एकाग्र होकर अपने सिर को दोनों हाथों के बीच में जमीन पर रखकर पैरों को ऊपर आकाश की ओर करके शरीर को उसी अवस्था में स्थिर कर देने को ही विपरीतकरणी मुद्रा माना गया है ।

विपरीतकरणी मुद्रा का फल

मुद्रां च साधयेन्नित्यं जरां मृत्युञ्च नाशयेत् । स सिद्ध: सर्वलोकेषु प्रलयेऽपि न सीदति ।। 36 ।।

भावार्थ :- जो योगी विपरीत करणी मुद्रा की साधना को प्रतिदिन करता है । वह इसमें सिद्धि प्राप्त कर लेता है । जिससे वह सभी लोकों अर्थात् पूरे विश्व में सिद्ध पुरुष कहलाता है । उसके लिए बुढ़ापा और मृत्यु भी नष्ट हो जाते हैं । वह प्रलय अर्थात् सृष्टि के विनाश के समय भी दुःख का अनुभव नहीं करता । विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से विपरीतकरणी मुद्रा के सम्बंध में निम्न प्रश्न पूछे जा सकते हैं । जैसे- विपरीतकरणी मुद्रा किस आसन से सम्बंधित मानी जाती है ? अथवा विपरीतकरणी मुद्रा में किस आसन की विधि अपनाई जाती है ? जिसका उत्तर है सर्वांगासन । शरीर में सूर्य का स्थान कहाँ पर है ? जिसका उत्तर है नाभि प्रदेश में । शरीर में चन्द्रमा का स्थान कहाँ पर स्थित है ? जिसका उत्तर है तालु प्रदेश में । शरीर में बहने वाले अमृत को किस मुद्रा द्वारा सुरक्षित रखा जा सकता है ? जिसका उत्तर है विपरीतकरणी मुद्रा द्वारा ।

योनिमुद्रा विधि वर्णन

सिद्धासनं समासाद्य कर्णचक्षुर्नसोमुखम् । अङ्गुष्ठतर्जनीमध्यानामादिभिश्च साधयेत् ।। 37 ।। काकोभि: प्राणंसङ्कृष्य अपाने योजयेत्तत: । षट्चक्राणि क्रमाद् ध्यात्वा हुं हंसमनुना सुधी: ।। 38 ।। चैतन्यमानयेद्धेवीं निद्रिता या भुजङ्गिनी । जीवेन सहितां शक्तिं समुत्थाप्य कराम्बुजे ।। 39 ।। शक्तिमय: स्वयं भूत्वा परं शिवेन सङ्गमम् । नानासुखं विहारञ्च चिन्तयेत् परमं सुखम् ।। 40 ।। शिवशक्ति समायोगादेकान्ते भुवि भावयेत् । आनन्दमानसो भूत्वा अहं ब्रह्मेति सम्भवेत् ।। 41 ।। योनिमुद्रा परा गोप्या देवानामपि दुर्ल्लभा । सकृत्तु लाभसंसिद्धि: समाधिस्थ: स एव हि ।। 42 ।।

भावार्थ :- योनिमुद्रा के लिए सिद्धासन में बैठकर अपने कानों, आँखों और मुहँ को अँगूठे, तर्जनी ( पहली अँगुली ), मध्यमा ( दूसरी अँगुली ) व अनामिका ( तीसरी अँगुली ) अँगुलियों से ढ़कना चाहिए । अब बुद्धिमान साधक काकीमुद्रा ( होठों को कौवे की चोंच के समान बनाकर ) से प्राणवायु को अन्दर भरकर उसे अपान वायु में मिला दें । इसके बाद साधक ‘हुं’ और ‘हंस’ मन्त्रों के द्वारा अपने शरीर में स्थित षट्चक्रों ( मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा चक्र ) पर ध्यान करते हुए उस सोई हुई भुजंगिनी अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने का काम करें और उस जीवंत शक्ति ( कुण्डलिनी ) को ऊपर की ओर उठाते हुए अपने अधीन करने का प्रयास करें । इस प्रकार कुण्डलिनी शक्ति को ऊपर की ओर उठाने से साधक स्वयं को शक्तिमान मानकर परम शक्तिमान भगवान शिव के साथ संयोग करके अनेक प्रकार के सुखों के साथ निवास करते हुए परम आनन्द का अनुभव करता है । साधक को शिव और शक्ति के मिलन से पृथ्वी पर ही एकान्त में रहते हुए स्वयं को ब्रह्मा का अंश मानते हुए या स्वयं को ही ब्रह्मा मानते हुए परमानन्द की भावना ( अनुभूति ) करनी चाहिए । योनिमुद्रा को भी अन्य मुद्राओं की भाँति ही अत्यंत गोपनीय माना गया है । इसे देवताओं के लिए भी दुर्लभ ( कठिनता से प्राप्त होने वाली ) माना गया है । योनिमुद्रा में एक बार भी सिद्धि प्राप्त होने से साधक को समाधि अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । विशेष :- योनिमुद्रा के सम्बंध में पूछा जा सकता है कि योनिमुद्रा में किस एक अन्य मुद्रा की विधि का भी प्रयोग किया जाता है ? जिसका उत्तर है काकीमुद्रा । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि योनिमुद्रा में किन मन्त्रों द्वारा चक्रों का ध्यान करने की बात कही गई है ? जिसका उत्तर है ‘हुं और हंस’ मन्त्रों द्वारा ।

योनिमुद्रा का फल

ब्रह्महा भ्रूणहाचैव सुरापी गुरुतल्पग: । एतै: पापैर्न लिप्येत योनिमुद्रानिबन्धनात् ।। 43 ।। यानि पापानि घोराणि उपपापानि यानि च । तानि सर्वाणि नश्यन्ति योनिमुद्रानिबन्धनात् । तस्मादभ्यासनं कुर्याद्यदि मुक्तिं समिच्छति ।। 44 ।।

भावार्थ :- योनिमुद्रा का अभ्यास करने से साधक ब्रह्महत्या, गर्भपात, मदिरापान ( शराब का सेवन करने वाला ), गुरु की पत्नी के साथ सम्भोग आदि इन सभी पापों से मुक्त हो जाता है अर्थात् उसकी इन सभी पापों किसी भी प्रकार की लिप्तता ( भागीदारी ) नहीं रहती है । इसके अतिरिक्त जो भी घोर पाप ( घृणित या बड़े ) या सामान्य श्रेणी के पाप होते हैं । योनिमुद्रा के अभ्यास से वह सभी पाप नष्ट ( प्रभावहीन ) हो जाते हैं । अतः मुक्ति की इच्छा अथवा अभिलाषा रखने वाले साधक को योनिमुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- इस श्लोक में कहा गया है कि योनिमुद्रा का अभ्यास करने वाला साधक ऊपर वर्णित सभी घृणित व सामान्य पापों से मुक्त हो जाता है । इसके अर्थ को समझने में कुछ व्यक्ति गलती कर बैठते हैं । उनका मानना है कि किसी व्यक्ति ने पूर्व में ऊपर वर्णित पाप किये हों और यदि अब वह योनिमुद्रा का अभ्यास करता है तो वह उन सभी पापों से मुक्त हो जाएगा । लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं है । जिस व्यक्ति ने जितने बुरे अथवा अच्छे कर्म किये हैं । उन सभी का फल उसको निश्चित रूप से मिलता है । यहाँ पर ग्रन्थकार का कहना है कि जो साधक नियमित रूप से योनिमुद्रा का अभ्यास करता है । वह ऊपर वर्णित पापों का भागीदार नहीं बनता है । वह उनसे सदा बचा रहता है । यहाँ पर पाप कर्मों से बचने की बात कही गई है न कि पाप कर्मों के फल से मुक्त होने की । जब साधक योनिमुद्रा के अभ्यास में अग्रसर रहता है तो वह इस प्रकार के घृणित कर्म करता ही नहीं है । वह सदैव इनसे दूर रहता है । तभी कहा गया है कि उसकी इन पाप कर्मों में किसी तरह की कोई लिप्तता नहीं होती । अतः सभी विद्यार्थी इस श्लोक के इस वास्तविक अर्थ को समझने का प्रयास करें । साथ ही इसमें बताये गए सभी पाप कर्मों को भी याद करलें । यह परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी हैं ।

वज्रोणि अथवा वज्रोली मुद्रा विधि

धरामवष्टभ्य करयोस्तालाभ्यामूर्ध्वं क्षिपेत्यादयुगं शिर: खे । शक्तिप्रबोधाय चिरजीवनाय वज्रोणिमुद्रां मुनयो वदन्ति ।। 45 ।।

भावार्थ :- दोनों हाथों को जमीन पर रखकर दोनों पैरों व सिर को ऊपर आकाश की ओर उठाएं । शक्ति को जगाने के लिए व दीर्घायु ( लम्बी आयु ) प्राप्त करने के लिए योगियों ने वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करने की बात कही है ।

वज्रोली मुद्रा का फल

अयं योगो योगश्रेष्ठो योगिनां मुक्तिकारकम् । अयं हितप्रदो योगो योगिनां सिद्धिदायक: ।। 46 ।। एतद्योगप्रसादेन बिन्दुसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् । सिद्धे बिन्दौ महायत्ने किं न सिद्धयतिभूतले ।। 47 ।। भोगेन महता युक्तो यदि मुद्रां समाचरेत् । तथापि सकला सिद्धिस्तस्य भवति निश्चिततम् ।। 48 ।।

भावार्थ :- वज्रोली मुद्रा योग साधनाओं में श्रेष्ठ बताई गई है । इसके अभ्यास से योगियों को मुक्ति प्राप्त होती है । साथ ही यह मुद्रा योगियों के लिए हितकारी व सिद्धि प्रदान करने वाली है । इस मुद्रा के अभ्यास से साधक को निश्चित रूप से वीर्य की सिद्धि प्राप्त होती है और वीर्य की सिद्धि प्राप्त होने से इस पृथ्वी पर कौन सा ऐसा कार्य है जिसे साधक पूरा नहीं कर सकता ? अर्थात् वीर्य की सिद्धि प्राप्त होने से साधक के लिए इस पृथ्वी पर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है । यदि विषय- भोगों में पड़ा हुआ व्यक्ति भी वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करता है तो उसे भी निश्चित रूप से सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । विशेष :- वज्रोली मुद्रा से साधक को किस सिद्धि की प्राप्ति होती है ? जिसका उत्तर है वीर्य सिद्धि । यह उपयोगी प्रश्न हो सकता है ।

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 Last Date Modified

2024-08-05 15:40:56

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