तृतीय अध्याय ( मुद्रा प्रकरण )
घेरण्ड संहिता के तीसरे अध्याय का विषय मुद्रा है । जिसमें ऋषि घेरण्ड ने सिद्धियों की प्राप्ति के लिए पच्चीस मुद्राओं का वर्णन किया है । मुद्रा के फल को बताते हुए कहा है कि मुद्राओं का अभ्यास करने से साधक को स्थिरता प्राप्त होती है ।मुद्रा वर्णन ( 25 )
महामुद्रा नभोमुद्रा उड्डीयानं जलन्धरम् । मूलबन्धं महाबन्धं महावेधश्च खेचरी ।। 1 ।। विपरीतकरी योनिर्वज्रोली शक्तिचालिनी । तडागी माण्डुकी मुद्रा शाम्भवी पचंधारणा ।। 2 ।। अश्विनी पाशिनी काकी मातङ्गी च भुजङ्गिनी । पञ्चविंशति मुद्राणि सिद्धदानीह योगिनाम् ।। 3 ।।
भावार्थ :- महामुद्रा, नभोमुद्र, उड्डीयान, जालन्धर, मूलबन्ध, महाबन्ध, महावेध, खेचरी, विपरीतकरणी, योनि, वज्रोली, शक्तिचालिनी, तडांगी, मांडवी, शाम्भवी, पञ्चधारणा ( पार्थिवी धारणा, आम्भसी धारणा, आग्नेयी धारणा, वायवीय धारणा, आकाशी धारणा ), अश्वनी, पाशिनी, काकी, मातङ्गी और भुजंगिनी यह पच्चीस ( 25 ) मुद्राएँ योगियों को सिद्धियाँ प्रदान करवाने वाली हैं । विशेष :- इस तीसरे अध्याय में ऋषि घेरण्ड ने पच्चीस मुद्राओं का वर्णन किया है । जो साधक को अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करती हैं । इन मुद्राओं में पाँच प्रकार की धारणाओं का भी वर्णन किया गया है । जो कि मुद्राओं के ही प्रकार हैं । परीक्षा में इससे सम्बंधित भी पूछा जाता है कि घेरण्ड संहिता में कितनी धारणाओं का वर्णन किया गया है ? जिसका उत्तर है पाँच । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि धारणाओं का वर्णन सप्तांग योग अथवा घेरण्ड संहिता के किस अंग में किया गया है ? जिसका उत्तर है योग के तीसरे अंग / तीसरे अध्याय में वर्णित मुद्राओं में । इसके साथ ही मुद्राओं में तीन प्रकार के बन्धों का भी वर्णन किया गया है :- उड्डीयान बन्ध, जालन्धर बन्ध व मूलबन्ध । इन तीनों बन्धों को एक साथ लगाने को महाबन्ध का नाम दिया गया है ।
मुद्राओं का फल
मुद्राणां पटलं देवि कथितं तव सन्निधौ । येन विज्ञातमात्रेण सर्वसिद्धि: प्रजायते ।। 4 ।।
भावार्थ :- हे देवी! ( यहाँ पर देवी शब्द भगवान शिव की ओर से माता पार्वती के लिए कहा गया है ) मैंने तुम्हारे सम्मुख ( सामने ) जिन मुद्राओं के समूह का वर्णन किया है । इन सभी को केवल जानने मात्र से ही साधक को सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं ।
मुद्राओं की गोपनीयता
गोपनीयं प्रयत्नेन न देयं यस्य कस्यचित् । प्रीतिदं योगिनाञ्चैव दुर्लभं मरुतामपि ।। 5 ।।
भावार्थ :- इन सभी मुद्राओं को पूरी तरह से गोपनीय रखना चाहिए । चाहे जिसको भी इनका ज्ञान नहीं देना चाहिए । यह मुद्राएँ देवताओं के लिए भी दुर्लभ ( प्राप्त करना कठिन हैं ) हैं । इनके अभ्यास से योगी साधक को आनन्द की प्राप्ति होती है । विशेष :- यहाँ पर चाहे जिसको भी इनका ज्ञान न देने से अभिप्राय यह है कि इनका ज्ञान हमेशा ही योग्य साधक को देना चाहिए । जो साधक इनका ज्ञान प्राप्त करने के लायक नहीं है । उसे कभी भी इनका ज्ञान नहीं देना चाहिए । इस प्रकार अयोग्य व्यक्ति को दिया गया ज्ञान कभी भी फलीभूत नहीं होता । अतः योग्य साधक को ही इनका उपदेश देना चाहिए ।
महामुद्रा विधि वर्णन
पायुमूलं वाम गुल्फे सम्पीड्य दृढ़यत्नतः । याम्यपादं प्रसार्याथ करे धृतपदाङ्गुल: ।। 6 ।। कण्ठ सङ्कोचनं कृत्वा भ्रुवोर्मध्ये निरीक्षीयत् । महामुद्राभिधा मुद्रा कथ्यते चैव सूरिभि: ।। 7 ।।
भावार्थ :- बायें पैर की एड़ी को गुदाद्वार के मूल भाग ( अंडकोशों व गुदाद्वार के बीच में ) पर पूर्ण प्रयास के साथ लगाते हुए उसको एड़ी से दबाएं । अब दायें पैर को सामने की तरफ फैलाते हुए दोनों हाथों से दायें पैर के अँगूठे को पकड़ें । इसके बाद अपने कण्ठ अर्थात् गले को सिकोड़ते हुए अपनी दोनों भौहों ( दोनों आँखों के बीच में स्थित आज्ञा चक्र पर ) के बीच में देखें । विद्वानों ने इसे महामुद्रा का नाम दिया है ।
महामुद्रा का फल
क्षयकासं गुदावर्त्तं प्लीहाजीर्णज्वरं तथा । नाशयेत्सर्वरोगांश्च महामुद्रा च साधनात् ।। 8 ।।
भावार्थ :- महामुद्रा के अभ्यास से साधक के क्षय व कासं रोग अर्थात् श्वास व बलगम सम्बन्धी रोग जैसे दमा व खाँसी आदि, गुदाद्वार के फोड़े या बवासीर व भगन्दर आदि रोग, प्लीहा ( मूत्र मार्ग से धातुओं का बहना ), पुराना बुखार आदि सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि महामुद्रा से कौन से रोग नष्ट होते हैं ? जिसका उत्तर ऊपर भावार्थ में दिया गया है ।
नभोमुद्र विधि व फल वर्णन
यत्र यत्र स्थितो योगी सर्वकार्येषु सर्वदा । ऊर्ध्वजिह्व: स्थिरो भूत्वा धारयेत् पवनं सदा । नभोमुद्रा भवेदेषा योगिनां रोगनाशिनी ।। 9 ।।
भावार्थ :- योगी को सदा अपने सभी कार्यों को करते हुए एक जगह स्थित अथवा स्थिर होकर अपनी जीभ को ऊपर आकाश की ओर करते हुए उससे वायु को धारण अर्थात् वायु का पान करना चाहिए । इसे नभोमुद्रा कहा जाता है । इसका अभ्यास करने से योगी साधकों के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । विशेष :- नभोमुद्रा के सम्बंध में पूछा जा सकता है कि नभोमुद्रा में साधक द्वारा किसका सेवन या पान किया जाता है ? जिसका उत्तर है वायु ।
उड्डीयान मुद्रा विधि व फल वर्णन
उदरे पश्चिमं तानं नाभेरूर्ध्वं तु कारयेत् । उड्डानं कुरुते यस्माद विश्रान्तं महाखग: । उड्डीयानं त्वसौ बन्धो मृत्युमातङ्गकेसरी ।। 10 ।। समग्राद् बन्धनादेतदुड्डीयानं विशिष्यते । उड्डीयाने समभ्यस्ते मुक्ति: स्वाभाविकी भवेत् ।। 11 ।।
भावार्थ :- पेट में स्थित नाभि प्रदेश व उससे ऊपर के भाग को पीछे की ओर खींचना उड्डीयान बन्ध कहलाता है । उड्डीयान बन्ध से प्राण ऊर्जा निरन्तर ऊपर की ओर उर्ध्वगामी होती है । यह उड्डीयान बन्ध मृत्यु रूपी हाथी के सामने शेर के समान होता है । इस उड्डीयान बन्ध को सभी बन्धों में विशिष्ट ( प्रमुख ) माना गया है । उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करने से साधक को बिना किसी विशेष प्रयास के स्वयं ही मुक्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । विशेष :- उड्डीयान बन्ध को सभी बन्धों ( उड्डीयान, जालन्धर व मूलबन्ध ) में श्रेष्ठ माना गया है । विद्यार्थियों के लिए यह उपयोगी जानकारी है । उड्डीयान बन्ध के सम्बंध में कुछ अन्य प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं । जैसे – किस यौगिक क्रिया से पूर्व हमें उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए ? जिसका उत्तर है नौलि क्रिया । उड्डीयान बन्ध में श्वास की स्थिति क्या होती है ? जिसका उत्तर है श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोककर अर्थात् बह्यवृत्ति प्राणायाम की स्थिति में उड्डीयान बन्ध का अभ्यास किया जाता है । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि प्राण का रेचन करके हमें उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए ।
जालन्धर बन्ध विधि व फल वर्णन
कण्ठ सङ्कोचनं कृत्वा चिबुकं हृदयेन्यसेत् । जालन्धर कृते बन्धे षोडशाधारबन्धनम् । जालन्धरमहामुद्रा मृत्योश्च क्षयकारिणी ।। 12 ।। सिद्धं जालन्धरं बन्धं योगिनां सिद्धिदायकम् । षण्मासमभ्सद्यो यो हि स सिद्धो नात्र संशय: ।। 13 ।।
भावार्थ :- किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर अपने कण्ठ को सिकोड़कर ठुड्डी को छाती पर लगाने को जालन्धर बन्ध कहते हैं । यह शरीर में स्थित सभी सोलह आधारों को बन्ध करता है अर्थात् इसके करने से सभी आधारों में भी अपने आप ही बन्ध लग जाता है । जालन्धर बन्ध नामक श्रेष्ठ मुद्रा के अभ्यास से मृत्यु का भी नाश हो जाता है । यदि निरन्तर छ: महीने तक जालन्धर बन्ध का अभ्यास किया जाए तो यह साधक को सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करता है । छ: महीने के अभ्यास से जालन्धर बन्ध सिद्ध हो जाता है । इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह अथवा शक नहीं है । विशेष :- जालन्धर बन्ध के सम्बंध में यह पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा अथवा बन्ध का अभ्यास करने से शरीर में स्थित सभी सोलह आधारों को बांधा अथवा स्थिर किया जा सकता है ? जिसका उत्तर जालन्धर बन्ध है । दूसरा यह भी पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा या बन्ध में सोलह आधारों का वर्णन किया गया है ? या पूछा जा सकता है कि जालन्धर बन्ध के अनुसार शरीर में कितने आधार माने गए हैं ? उत्तर है सोलह ( 16 ) । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि जालन्धर बन्ध कितने समय में सिद्ध हो जाता है ? उत्तर है छ: महीने में । ऊपर वर्णित प्रश्न परीक्षा की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं ।
मूलबन्ध विधि व फल वर्णन
पार्ष्णिना वामपादस्य योनिमाकुञ्चयेत्तत: । नाभिग्रन्थिं मेरुदण्डे सम्पीड्य यत्नतः सुधी: ।। 14 ।। मेढ्रं दक्षिणगुल्फे तु दृढबन्धं समाचरेत् । जराविनाशिनी मुद्रा मूलबन्धो निगद्यते ।। 15 ।। संसारसमुद्रं तर्त्तमभिलषति य: पुमान् । विरलेसुगुप्तो भूत्वा मुद्रामेनां समभ्यसेत् ।। 16 ।। अभ्यासाद् बन्धनस्यास्य मरुत्सिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् । साधयेद् यत्नतो तर्हि मौनी तु विजितालस: ।। 17 ।।
भावार्थ :- बुद्धिमान साधक पहले बायें पैर की एड़ी से योनिस्थान ( अंडकोशों के नीचे का स्थान ) को दबाते हुए अपने नाभि प्रदेश व मेरुदण्ड ( रीढ़ की हड्डी ) को प्रयत्नपूर्वक सीधा तानकर रखें । इसके बाद अपने दायें पैर की एड़ी से अपने लिङ्ग को अच्छी तरह से दबाकर रखें अर्थात् एड़ी को लिङ्ग के ऊपर स्थापित कर देना चाहिए । इस प्रकार यह मूलबन्ध नामक मुद्रा साधक के बुढ़ापे को खत्म करने वाली होती है । जो भी व्यक्ति इस जीवन रूपी समुन्द्र को पार करने की इच्छा रखता है, उसे कहीं एकांत स्थान पर जाकर स्थिर मन द्वारा इस मूलबन्ध मुद्रा का अच्छी प्रकार से अभ्यास करना चाहिए । इस मुद्रा के अभ्यास से साधक के सभी बन्धनों का नाश होता है और प्राण वायु की सिद्धि प्राप्त होती है । अतः योग साधक को मौन भाव से युक्त होकर आलस्य को पूरी तरह से त्यागते हुए इस भली- भाँति इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- मूलबन्ध के अभ्यास से योगी को कभी बुढ़ापा नहीं आता व उसके सभी बन्धन समाप्त हो जाते हैं । साथ ही इसके अभ्यास से साधक संसार रूपी सागर को पार कर लेता है ।
महाबन्ध वर्णन
वामपादस्य गुल्फेन पायुमूलं निरोधयेत् । दक्षपादेन तद्गुल्फं संपीड्य यत्नतः सुधी: ।। 18 ।। शनै: शनैश्चालयेत् पार्ष्णिं योनिमाकुञ्चयेच्छन: । जालन्धरे धारयेत् प्राणं महाबन्धो निगद्यते ।। 19 ।।
भावार्थ :- बायें पैर की एड़ी से गुदामार्ग को दबाकर उसका निरोध करते हुए दायें पैर की एड़ी से योनिस्थान को प्रयास पूर्वक दबाएं । इसके बाद धीरे- धीरे से गुदास्थान व योनिस्थान का आकुंचन ( उसे सिकोड़ें ) करे । इसके साथ ही प्राणवायु को शरीर के अन्दर रोकते हुए जालन्धर बन्ध लगाएं । इस विधि को महाबन्ध कहा गया है । विशेष :- ऊपर वर्णित महाबन्ध की विधि में मूलबन्ध व जालन्धर बन्ध की विधियाँ ही प्रयोग की गई हैं । उड्डीयान बन्ध का इसमें प्रयोग नहीं किया गया है ।
महाबन्ध फल
महाबन्ध: परो बन्धो जरामरणनाशन: । प्रसादादस्य बन्धस्य साधयेत् सर्ववाञ्छितम् ।। 20 ।।
भावार्थ :- महाबन्ध मुद्रा के अभ्यास से बुढ़ापा व मृत्यु का नाश होता है । महाबन्ध को सभी बन्धों में श्रेष्ठ माना गया है । इस मुद्रा के प्रभाव से साधक की सभी इच्छाएँ ( कामनाएँ ) पूर्ण होती हैं । विशेष :- महाबन्ध मुद्रा मृत्यु व बुढ़ापा दोनों का नाश करता है । इसे केवल सभी बन्धों में श्रेष्ठ माना गया है न कि सभी मुद्राओं में । इससे साधक की सभी कामनाएँ भी पूर्ण होती हैं । यह सब परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी है ।
महावेध की उपयोगिता
रूपयौवनलावण्यं नारीणां पुरुषं विना । मूलबन्धमहाबन्धौ महावेधं विना तथा ।। 21 ।।
भावार्थ :- जिस प्रकार पुरुष के बिना नारी के रूप ( सुन्दर रंग ), यौवन ( जवानी ) व लावण्य ( मनमोहक सुंदरता ) का का कोई महत्त्व नहीं है अर्थात् पुरुष के बिना यह सब निरर्थक होता है । ठीक उसी प्रकार महावेध मुद्रा के बिना मूलबन्ध व महाबन्ध का कोई महत्त्व नहीं है अर्थात् महावेध के बिना मूलबन्ध व महाबन्ध का अभ्यास करना निरर्थक है । विशेष :- इस श्लोक में महावेध मुद्रा के महत्त्व को बताया गया है । परीक्षा की दृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा का अभ्यास किये बिना मूलबन्ध व महाबन्ध मुद्रा को निरर्थक अथवा फलहीन बताया गया है ? जिसका उत्तर है महावेध मुद्रा ।
महावेध मुद्रा विधि
महाबन्धं समासाद्य उड्डानकुम्भकं चरेत् । महावेध: समाख्यातो योगिनां सिद्धिदायक: ।। 22 ।।
भावार्थ :- पहले साधक महाबन्ध मुद्रा की स्थिति में बैठे इसके बाद उड्डीयान बन्ध को लगाते हुए कुम्भक ( प्राणवायु को बाहर रोकें ) का अभ्यास करें । इस प्रकार यह महावेध मुद्रा कहलाती है । जो योगियों को सिद्धि प्रदान करती है । विशेष :- महावेध मुद्रा में उड्डीयान बन्ध, जालन्धर बन्ध व मूलबन्ध तीनों बन्धों का प्रयोग किया जाता है । परीक्षा में इससे सम्बंधित प्रश्न पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा में तीनों बन्ध एक साथ लगाए जाते हैं ? जिसका उत्तर है महावेध मुद्रा ।
महावेध मुद्रा का फल
महाबन्धमूलबन्धौ महावेध समन्वितौ । प्रत्यहं कुरुते यस्तु स योगी योगवित्तम: ।। 23 ।। न मृत्युतो भयं तस्य न जरा तस्य विद्यते । गोपनीय: प्रयत्नेन वेधायं योगिपुङ्गवै: ।। 24 ।।
भावार्थ :- जो योग साधक प्रतिदिन मूलबन्ध व महाबन्ध के साथ महावेध मुद्रा का अभ्यास करता है, वह योग का ज्ञानी अथवा श्रेष्ठ योगी कहलाता है । जिसे न तो कभी बुढ़ापा सताता है और न ही वह कभी मृत्यु से भयभीत होता है । तभी सभी श्रेष्ठ योगियों ने महावेध मुद्रा की विधि को प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखने की बात कही है । विशेष :- महावेध मुद्रा करने वाले योगी को श्रेष्ठ योगी माना गया है । इसके अलावा यह मुद्रा बुढ़ापा व मृत्यु के प्रभाव को खत्म कर देती है ।
खेचरी मुद्रा विधि
जिह्वाधो नाडीं सञ्छिन्नां रसनां चालयेत् सदा । दोहेयेन्नवनीतेन लौहयन्त्रेण कर्षयेत् ।। 25 ।। एवं नित्यं समभ्यासाल्लम्बिका दीर्घतां व्रजेत् । यावद् गच्छेद् भ्रुवोर्मध्ये तदागच्छति खेचरी ।। 26 ।। रसनां तालुमध्ये तु शनै: शनै: प्रवेशयेत् । कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा । भ्रुवोर्मध्ये गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।। 27 ।।
भावार्थ :- जीभ के नीचे स्थित नाड़ी ( जो जीभ गले से जोड़ कर रखती है ) को हल्का सा काटकर सदा उसको चलाना चाहिए अर्थात् जीभ को पकड़कर उसे आगे व पीछे की ओर खींचना चाहिए । उसके बाद जीभ के ऊपर मक्खन लगाकर उसका दोहन ( जिस प्रकार गाय अथवा भैंस का दूध निकालते हुए उनके स्तनों को खींचते हैं ) करना चाहिए और फिर लोहे की चिमटी से जीभ को पकड़कर उसे आगे की तरफ खींचे । इस प्रकार का अभ्यास प्रतिदिन करने से साधक की जीभ लम्बी हो जाती है और वह दोनों भोहों ( आज्ञा चक्र ) तक पहुँच जाती है । जैसे ही साधक की जीभ दोनों भौहों के बीच तक पहुँच जाती है वैसे ही उसकी खेचरी सिद्ध होने लगती है । इसके बाद जीभ को धीरे- धीरे उलटते हुए ( उल्टी करके ) तालु प्रदेश ( गले के बीच में ) के पीछे स्थित छिद्र में उसको प्रविष्ट ( उसका प्रवेश ) करवाएं और दृष्टि को दोनों भौहों के बीच में स्थिर करें अर्थात् दोनों भौहों के बीच में देखें । इसे खेचरी मुद्रा कहा जाता है । विशेष :- खेचरी मुद्रा सभी मुद्राओं में अपना प्रमुख स्थान रखती है । इसे करने के लिए साधक को काफी समय व धैर्य का पालन करना पड़ता है । साथ ही इसे किसी अनुभवी योगी से ही सीखा जा सकता है । खेचरी मुद्रा करते हुए जब जीभ का दोहन किया जाता है तब साधक को ताजे मक्खन का प्रयोग करना अनिवार्य होता है साथ ही उसे लोहे की किसी चिमटी से खींचना पड़ता है । क्योंकि मक्खन लगने के बाद जीभ को हाथ से नहीं खींचा जा सकता । यह कुछ उपयोगी जानकारी थी जिसके सम्बन्ध में पूछा जा सकता है ।
खेचरी मुद्रा का फल
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते । न च रोगो जरा मृत्युर्देवदेह: स जायते ।। 28 ।। नाग्निना दह्यते गात्रं न शोषयति मारुत: । न देहं क्लेदयन्त्यापो दंशयेन्न भुजङ्गम: ।। 29 ।। लावण्यं च भवेद् गात्रे समाधिर्जायते ध्रुवम् । कपालवक्त्र संयोगे रसना रसमाप्नुयात् ।। 30 ।। नाना रस समुद् भूतमानन्दं च दिने दिने । आदौ लवणक्षारं च ततस्तिक्तं कषायकम् ।। 31 ।। नवनीतं घृतं क्षीरं दधितक्रमधूनि च । द्राक्षारसं च पीयूषं जायते रसनोदकम् ।। 32 ।।
भावार्थ :- जो साधक खेचरी मुद्रा का अभ्यास करता है उसे न तो कभी मूर्च्छा ( अचेतन अवस्था ) आती है, न ही उसे भूख व प्यास परेशान करती है, न उसे कभी आलस्य आता है, न ही उसे कभी कोई रोग होता है, न ही वह कभी बूढ़ा होता है और न ही वह कभी मृत्यु को प्राप्त होता है । बल्कि उसका शरीर देवताओं के समान कान्तिमान हो जाता है । उसके शरीर को अग्नि जला नहीं सकती, वायु सुखा नहीं सकती, पानी उसे गीला नहीं कर पाता है और न ही साँप के काटने ( डसने ) का उस पर कोई प्रभाव होता है । उसका शरीर सदा कान्तिमान अर्थात् तेजयुक्त होता है । उसे निश्चित रूप से समाधि की प्राप्ति होती है । कपाल और मुहँ का संयोग अर्थात् कपाल व मुख में एकरूपता होने से उसकी जीभ को अनेक या सभी प्रकार के रसों की प्राप्ति हो जाती है । उसे दिन – प्रतिदिन अनेक प्रकार के रसों का अनुभव होता रहता है । इस क्रम में सबसे पहले लवण ( नमकीन खाद्य पदार्थों जैसा स्वाद ) और क्षारीय ( जामुन, गाजर, नींबू आदि पदार्थों जैसा स्वाद ) उसके बाद तिक्त ( तीखे जैसे- मिर्च व मसालों जैसा स्वाद ) और कषाय ( कड़वे जैसे- करेला आदि खाद्य पदार्थों जैसा स्वाद ) रसों का अनुभव होता है । इनके बाद साधक को ताजे मक्खन, घी, दूध, दही, तक्र ( लस्सी ), शहद, अंगूरों का रस व उसके बाद अन्त में अमृत जैसे रसों का अनुभव अथवा उत्पत्ति होती है । विशेष :- खेचरी मुद्रा के लाभों की सूची अत्यंत लम्बी है । इसके अलावा इसे मुख्य मुद्राओं में से एक माना गया है । अतः सभी विद्यार्थी इन सभी श्लोकों को ध्यानपूर्वक पढ़ें । परीक्षा की दृष्टि से यह अत्यंत उपयोगी हैं ।
विपरीतकरणी मुद्रा विधि
नाभिमूलेवसेत् सूर्यस्तालुमूले च चन्द्रमा: । अमृतं ग्रसते सूर्यस्ततो मृत्युवशो नर: ।। 33 ।। ऊर्ध्वं च योजयेत् सूर्यञ्चन्द्रञ्च अध आनयेत् । विपरीतकरणी मुद्रासर्वतन्त्रेषु गोपिता ।। 34 ।। भूमौ शिरश्च संस्थाप्य करयुग्मं समाहित: । उर्ध्वपाद: स्थिरो भूत्वा विपरीतकरी मता ।। 35 ।।
भावार्थ :- मनुष्य के शरीर में सूर्य नाभि के मूलभाग अर्थात् नाभि के बीच में निवास करता है और चन्द्रमा तालु प्रदेश अर्थात् गले में रहता है । चन्द्रमा से स्त्रावित ( बहने ) होने वाले रस का सूर्य द्वारा ग्रहण कर लेने से ही साधक की मृत्यु होती है । अपने सूर्य ( नाभि प्रदेश ) को ऊपर की ओर व चन्द्रमा ( तालु प्रदेश ) को ( नीचे की ओर ले जाने को ही विपरीतकरणी मुद्रा कहा गया है । जो सभी तन्त्र के ग्रन्थों में गोपनीय अर्थात् जिसे तन्त्र विद्या के सभी ग्रन्थों में गुप्त रखने की बात कही गई है । इसके लिए साधक को एकाग्र होकर अपने सिर को दोनों हाथों के बीच में जमीन पर रखकर पैरों को ऊपर आकाश की ओर करके शरीर को उसी अवस्था में स्थिर कर देने को ही विपरीतकरणी मुद्रा माना गया है ।
विपरीतकरणी मुद्रा का फल
मुद्रां च साधयेन्नित्यं जरां मृत्युञ्च नाशयेत् । स सिद्ध: सर्वलोकेषु प्रलयेऽपि न सीदति ।। 36 ।।
भावार्थ :- जो योगी विपरीत करणी मुद्रा की साधना को प्रतिदिन करता है । वह इसमें सिद्धि प्राप्त कर लेता है । जिससे वह सभी लोकों अर्थात् पूरे विश्व में सिद्ध पुरुष कहलाता है । उसके लिए बुढ़ापा और मृत्यु भी नष्ट हो जाते हैं । वह प्रलय अर्थात् सृष्टि के विनाश के समय भी दुःख का अनुभव नहीं करता । विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से विपरीतकरणी मुद्रा के सम्बंध में निम्न प्रश्न पूछे जा सकते हैं । जैसे- विपरीतकरणी मुद्रा किस आसन से सम्बंधित मानी जाती है ? अथवा विपरीतकरणी मुद्रा में किस आसन की विधि अपनाई जाती है ? जिसका उत्तर है सर्वांगासन । शरीर में सूर्य का स्थान कहाँ पर है ? जिसका उत्तर है नाभि प्रदेश में । शरीर में चन्द्रमा का स्थान कहाँ पर स्थित है ? जिसका उत्तर है तालु प्रदेश में । शरीर में बहने वाले अमृत को किस मुद्रा द्वारा सुरक्षित रखा जा सकता है ? जिसका उत्तर है विपरीतकरणी मुद्रा द्वारा ।
योनिमुद्रा विधि वर्णन
सिद्धासनं समासाद्य कर्णचक्षुर्नसोमुखम् । अङ्गुष्ठतर्जनीमध्यानामादिभिश्च साधयेत् ।। 37 ।। काकोभि: प्राणंसङ्कृष्य अपाने योजयेत्तत: । षट्चक्राणि क्रमाद् ध्यात्वा हुं हंसमनुना सुधी: ।। 38 ।। चैतन्यमानयेद्धेवीं निद्रिता या भुजङ्गिनी । जीवेन सहितां शक्तिं समुत्थाप्य कराम्बुजे ।। 39 ।। शक्तिमय: स्वयं भूत्वा परं शिवेन सङ्गमम् । नानासुखं विहारञ्च चिन्तयेत् परमं सुखम् ।। 40 ।। शिवशक्ति समायोगादेकान्ते भुवि भावयेत् । आनन्दमानसो भूत्वा अहं ब्रह्मेति सम्भवेत् ।। 41 ।। योनिमुद्रा परा गोप्या देवानामपि दुर्ल्लभा । सकृत्तु लाभसंसिद्धि: समाधिस्थ: स एव हि ।। 42 ।।
भावार्थ :- योनिमुद्रा के लिए सिद्धासन में बैठकर अपने कानों, आँखों और मुहँ को अँगूठे, तर्जनी ( पहली अँगुली ), मध्यमा ( दूसरी अँगुली ) व अनामिका ( तीसरी अँगुली ) अँगुलियों से ढ़कना चाहिए । अब बुद्धिमान साधक काकीमुद्रा ( होठों को कौवे की चोंच के समान बनाकर ) से प्राणवायु को अन्दर भरकर उसे अपान वायु में मिला दें । इसके बाद साधक ‘हुं’ और ‘हंस’ मन्त्रों के द्वारा अपने शरीर में स्थित षट्चक्रों ( मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा चक्र ) पर ध्यान करते हुए उस सोई हुई भुजंगिनी अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने का काम करें और उस जीवंत शक्ति ( कुण्डलिनी ) को ऊपर की ओर उठाते हुए अपने अधीन करने का प्रयास करें । इस प्रकार कुण्डलिनी शक्ति को ऊपर की ओर उठाने से साधक स्वयं को शक्तिमान मानकर परम शक्तिमान भगवान शिव के साथ संयोग करके अनेक प्रकार के सुखों के साथ निवास करते हुए परम आनन्द का अनुभव करता है । साधक को शिव और शक्ति के मिलन से पृथ्वी पर ही एकान्त में रहते हुए स्वयं को ब्रह्मा का अंश मानते हुए या स्वयं को ही ब्रह्मा मानते हुए परमानन्द की भावना ( अनुभूति ) करनी चाहिए । योनिमुद्रा को भी अन्य मुद्राओं की भाँति ही अत्यंत गोपनीय माना गया है । इसे देवताओं के लिए भी दुर्लभ ( कठिनता से प्राप्त होने वाली ) माना गया है । योनिमुद्रा में एक बार भी सिद्धि प्राप्त होने से साधक को समाधि अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । विशेष :- योनिमुद्रा के सम्बंध में पूछा जा सकता है कि योनिमुद्रा में किस एक अन्य मुद्रा की विधि का भी प्रयोग किया जाता है ? जिसका उत्तर है काकीमुद्रा । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि योनिमुद्रा में किन मन्त्रों द्वारा चक्रों का ध्यान करने की बात कही गई है ? जिसका उत्तर है ‘हुं और हंस’ मन्त्रों द्वारा ।
योनिमुद्रा का फल
ब्रह्महा भ्रूणहाचैव सुरापी गुरुतल्पग: । एतै: पापैर्न लिप्येत योनिमुद्रानिबन्धनात् ।। 43 ।। यानि पापानि घोराणि उपपापानि यानि च । तानि सर्वाणि नश्यन्ति योनिमुद्रानिबन्धनात् । तस्मादभ्यासनं कुर्याद्यदि मुक्तिं समिच्छति ।। 44 ।।
भावार्थ :- योनिमुद्रा का अभ्यास करने से साधक ब्रह्महत्या, गर्भपात, मदिरापान ( शराब का सेवन करने वाला ), गुरु की पत्नी के साथ सम्भोग आदि इन सभी पापों से मुक्त हो जाता है अर्थात् उसकी इन सभी पापों किसी भी प्रकार की लिप्तता ( भागीदारी ) नहीं रहती है । इसके अतिरिक्त जो भी घोर पाप ( घृणित या बड़े ) या सामान्य श्रेणी के पाप होते हैं । योनिमुद्रा के अभ्यास से वह सभी पाप नष्ट ( प्रभावहीन ) हो जाते हैं । अतः मुक्ति की इच्छा अथवा अभिलाषा रखने वाले साधक को योनिमुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- इस श्लोक में कहा गया है कि योनिमुद्रा का अभ्यास करने वाला साधक ऊपर वर्णित सभी घृणित व सामान्य पापों से मुक्त हो जाता है । इसके अर्थ को समझने में कुछ व्यक्ति गलती कर बैठते हैं । उनका मानना है कि किसी व्यक्ति ने पूर्व में ऊपर वर्णित पाप किये हों और यदि अब वह योनिमुद्रा का अभ्यास करता है तो वह उन सभी पापों से मुक्त हो जाएगा । लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं है । जिस व्यक्ति ने जितने बुरे अथवा अच्छे कर्म किये हैं । उन सभी का फल उसको निश्चित रूप से मिलता है । यहाँ पर ग्रन्थकार का कहना है कि जो साधक नियमित रूप से योनिमुद्रा का अभ्यास करता है । वह ऊपर वर्णित पापों का भागीदार नहीं बनता है । वह उनसे सदा बचा रहता है । यहाँ पर पाप कर्मों से बचने की बात कही गई है न कि पाप कर्मों के फल से मुक्त होने की । जब साधक योनिमुद्रा के अभ्यास में अग्रसर रहता है तो वह इस प्रकार के घृणित कर्म करता ही नहीं है । वह सदैव इनसे दूर रहता है । तभी कहा गया है कि उसकी इन पाप कर्मों में किसी तरह की कोई लिप्तता नहीं होती । अतः सभी विद्यार्थी इस श्लोक के इस वास्तविक अर्थ को समझने का प्रयास करें । साथ ही इसमें बताये गए सभी पाप कर्मों को भी याद करलें । यह परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी हैं ।
वज्रोणि अथवा वज्रोली मुद्रा विधि
धरामवष्टभ्य करयोस्तालाभ्यामूर्ध्वं क्षिपेत्यादयुगं शिर: खे । शक्तिप्रबोधाय चिरजीवनाय वज्रोणिमुद्रां मुनयो वदन्ति ।। 45 ।।
भावार्थ :- दोनों हाथों को जमीन पर रखकर दोनों पैरों व सिर को ऊपर आकाश की ओर उठाएं । शक्ति को जगाने के लिए व दीर्घायु ( लम्बी आयु ) प्राप्त करने के लिए योगियों ने वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करने की बात कही है ।
वज्रोली मुद्रा का फल
अयं योगो योगश्रेष्ठो योगिनां मुक्तिकारकम् । अयं हितप्रदो योगो योगिनां सिद्धिदायक: ।। 46 ।। एतद्योगप्रसादेन बिन्दुसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् । सिद्धे बिन्दौ महायत्ने किं न सिद्धयतिभूतले ।। 47 ।। भोगेन महता युक्तो यदि मुद्रां समाचरेत् । तथापि सकला सिद्धिस्तस्य भवति निश्चिततम् ।। 48 ।।
भावार्थ :- वज्रोली मुद्रा योग साधनाओं में श्रेष्ठ बताई गई है । इसके अभ्यास से योगियों को मुक्ति प्राप्त होती है । साथ ही यह मुद्रा योगियों के लिए हितकारी व सिद्धि प्रदान करने वाली है । इस मुद्रा के अभ्यास से साधक को निश्चित रूप से वीर्य की सिद्धि प्राप्त होती है और वीर्य की सिद्धि प्राप्त होने से इस पृथ्वी पर कौन सा ऐसा कार्य है जिसे साधक पूरा नहीं कर सकता ? अर्थात् वीर्य की सिद्धि प्राप्त होने से साधक के लिए इस पृथ्वी पर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है । यदि विषय- भोगों में पड़ा हुआ व्यक्ति भी वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करता है तो उसे भी निश्चित रूप से सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । विशेष :- वज्रोली मुद्रा से साधक को किस सिद्धि की प्राप्ति होती है ? जिसका उत्तर है वीर्य सिद्धि । यह उपयोगी प्रश्न हो सकता है ।
शक्तिचालिनी मुद्रा की भूमिका
मूलाधारे आत्मशक्ति: कुण्डली परदेवता । शयिता भुजगाकारा सार्द्ध त्रिवल यान्विता ।। 49 ।। यावत् सा निद्रिता देहे तावज्जीव: पशुर्यथा । ज्ञानं न जायते तावत् कोटियोगं समभ्यसेत् ।। 50 ।। उद्घाटयेत् कपाटञ्च यथा कुञ्चिकया हठात् । कुण्डलिन्या: प्रबोधेन ब्रह्मद्वारं प्रभेदयेत् ।। 51 ।। नाभिं संवेष्टय वस्त्रेण न च नग्नो बहिस्थित: । गोपनीयगृहे स्थित्वा शक्तिचालनमभ्यसेत् ।। 52 ।।
भावार्थ :-मनुष्य शरीर के मूलाधार चक्र में सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में आत्मा की प्रमुख शक्ति अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति साँप की भाँति साढ़े तीन लपेटे ( जिस प्रकार साँप कुंडली मारकर बैठता है ) लगाकर सोई हुई रहती है । जब तक शरीर में कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई रहती है तब तक साधक पशु की भाँति बिना ज्ञान के ही घूमता रहता है । चाहे वह असंख्य योग साधनाओं का अभ्यास करले, लेकिन फिर भी उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है । जिस प्रकार ताला लगे हुए दरवाजे को हम चाबी के द्वारा बलपूर्वक खोल देते हैं । ठीक उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने पर हम ब्रह्मग्रन्थि का आसानी से भेदन कर सकते हैं अर्थात् ब्रह्मद्वार को खोल सकते हैं । शक्तिचालन मुद्रा का अभ्यास करने के लिए साधक को अपनी नाभि प्रदेश के ऊपर वस्त्र लपेटना होता है । साधक को यह कार्य न ही तो बाहर खुले स्थान पर करना चाहिए और न ही पूरी तरह से नग्न अर्थात् नंगा होकर करना चाहिए । इसका अभ्यास पूरी तरह से गुप्त स्थान पर रहकर करना चाहिए । विशेष :- इस श्लोक के विषय में पूछा जा सकता है कि कुण्डलिनी का स्थान शरीर में कहा पर है ? जिसका उत्तर है मूलाधार चक्र में । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि कुण्डलिनी शक्ति कितने वलयों अर्थात् लपेटों में लिपटी हुई है ? जिसका उत्तर है साढ़े तीन वलयों या लपेटों में । शक्तिचालन मुद्रा में वस्त्र को शरीर के किस अंग पर लपेटा जाता है ? उत्तर है नाभि प्रदेश के ऊपर । वस्त्र को लपेटते हुए अथवा मुद्रा का अभ्यास किस स्थान पर करना चाहिए ? उत्तर है गुप्त स्थान पर ।
शक्तिचालिनी मुद्रा विधि वर्णन
वितस्तिप्रमितं दीर्घं विस्तारे चुतुरङ्गुलम् । मृदुलं धवनं सूक्ष्मं वेष्टनाम्बरललक्षणम् । एवमम्बरयुक्तञ्च कटिसूत्रेण योजयेत् ।। 53 ।। भस्मना गात्रं संलिप्य सिद्धासनं समाचरेत् । नासाभ्यां प्राणमाकृष्य अपाने योजयेद् बलात् ।। 54 ।। तावदाकुञ्चयेद्गुह्यं शनैरश्विनिमुद्रया । यावद् गच्छेत् सुषुम्णायां वायु: प्राकाशयेद्धठात् ।। 55 ।। तदा वायुप्रबन्धेन कुम्भिका च भुजङ्गिनी । बद्धश्वासस्ततो भूत्वा उर्ध्वमार्गं प्रपद्यते ।। 56 ।।
भावार्थ :- एक विता अर्थात् एक बिलात ( लगभग नौ से बारह इंच लम्बा ) लम्बा व चार अँगुल ( लगभग तीन इंच ) चौड़ाई वाला कोमल और सूक्ष्म अर्थात् बारीक सफेद कपड़े को नाभि के ऊपर लपेटने का चाहिए । यह वस्त्र के लक्षण ( कोमल, बारीक, सफेद व उसकी लम्बाई- चौड़ाई आदि ) बताये गए हैं । ऊपर वर्णित गुणों से युक्त वस्त्र को ही साधक द्वारा अपनी कमर में बाँधना चाहिए । इसके बाद साधक अपने शरीर पर भस्म ( गोबर के उपले को जलाने के बाद बचने वाली राख को ) लगाकर सिद्धासन का अभ्यास करना चाहिए । सिद्धासन लगाने के बाद दोनों नासिका छिद्रों से प्राणवायु को शरीर के अन्दर भरते हुए बलपूर्वक उसे अपान वायु के साथ संयुक्त करें अर्थात् मिलायें ( प्राण व अपान को ) । अब साधक अश्वनी मुद्रा के द्वारा अपने गुदा प्रदेश व लिङ्ग को तब तक सिकोड़ते रहें । जब तक कि प्राण व अपान वायु दोनों बलपूर्वक सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करके उसको प्रकाशित न करदे अर्थात् जब तक साधक को इस बात का ज्ञान न हो जाये कि वह प्राण व अपान वायु सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर चुकी हैं । इसके बाद बाह्यकुम्भक का अभ्यास करते हुए प्राणवायु को बाहर ही रोकें । इससे कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर शरीर में ऊपर की ओर चढ़ने लगती है अर्थात् इससे कुण्डलिनी शक्ति उर्ध्वगामी हो जाती है । विशेष :- इस श्लोक में दिए गए सभी लक्षण परीक्षा की दृष्टि से काफी उपयोगी हैं । जैसे – शक्तिचालन मुद्रा के लिए वस्त्र के लक्षण क्या होते हैं ? जिसका उत्तर है कोमल, बारीक, सफेद, एक बिता लम्बा व चार अँगुल चौड़ा कपड़ा । शक्तिचालन मुद्रा में किस आसन व किस अन्य मुद्रा का प्रयोग किया जाता है ? जिसका उत्तर है सिद्धासन व योनिमुद्रा ।
शक्तिचालन मुद्रा से योनि मुद्रा की सिद्धि
विना शक्तिंचालनेन योनिमुद्रा न सिद्धयति । आदौ चालनमभयस्त योनिमुद्रां सम्भयसेत् ।। 57 ।। इति ते कथितं चण्डकापाले शक्तिचालनम् । गोपनीयं प्रयत्नेन दिने दिने सम्भयसेत् ।। 58 ।।
भावार्थ :- शक्तिचालन मुद्रा का अभ्यास किये बिना योनिमुद्रा को सिद्ध नहीं किया जा सकता अर्थात् बिना शक्तिचालन मुद्रा के योनिमुद्रा में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती । इसलिए साधक को पहले शक्तिचालन मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । उसके बाद योनिमुद्रा को साधना चाहिए । अब घेरण्ड ऋषि कहते हैं हे चन्डकापालि! यह शक्तिचालन मुद्रा का ज्ञान था जो मैंने तुम्हें बताया है । इसे अत्यंय गोपनीय रखते हुए प्रीतिदन प्रयत्नपूर्वक इसका अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- इस श्लोक में बताया गया है कि योनिमुद्रा से पहले साधक को शक्तिचालन मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । शक्तिचालन मुद्रा के सिद्ध होने पर ही योनिमुद्रा सिद्ध होती है । यह भी याद रखने योग्य जानकारी है ।
शक्तिचालन मुद्रा से योनि मुद्रा की सिद्धि
मुद्रेयं परमा गोप्या जरामरणनाशिनी । तस्मादभ्यासनंकार्यं योगिभि: सिद्धिकाङ्क्षिभि: ।। 59 ।। नित्यं योऽभ्यसते योगी सिद्धिस्तस्य करे स्थिता । तस्य विग्रहसिद्धि: स्याद्रोगाणां सङ्क्षयो भवेत् ।। 60 ।।
भावार्थ :- शक्तिचालन मुद्रा अत्यंत गोपनीय है । यह बुढ़ापे व मृत्यु का नाश करने वाली होती है । इसलिए जो साधक योग साधना में सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें इसका अभ्यास करना चाहिए । जो योगी साधक नित्य प्रति इस मुद्रा का अभ्यास करते हैं, सिद्धि सदा उनके हाथ में रहती है । साथ ही उनका अपने शरीर पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है । इसके अलावा साधक के सभी रोगों का नाश भी हो जाता है ।
शक्तिचालन मुद्रा से योनि मुद्रा की सिद्धि
मुद्रेयं परमा गोप्या जरामरणनाशिनी । तस्मादभ्यासनंकार्यं योगिभि: सिद्धिकाङ्क्षिभि: ।। 59 ।। नित्यं योऽभ्यसते योगी सिद्धिस्तस्य करे स्थिता । तस्य विग्रहसिद्धि: स्याद्रोगाणां सङ्क्षयो भवेत् ।। 60 ।।
भावार्थ :- शक्तिचालन मुद्रा अत्यंत गोपनीय है । यह बुढ़ापे व मृत्यु का नाश करने वाली होती है । इसलिए जो साधक योग साधना में सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें इसका अभ्यास करना चाहिए । जो योगी साधक नित्य प्रति इस मुद्रा का अभ्यास करते हैं, सिद्धि सदा उनके हाथ में रहती है । साथ ही उनका अपने शरीर पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है । इसके अलावा साधक के सभी रोगों का नाश भी हो जाता है ।
तडागी मुद्रा विधि व फल वर्णन
उदरं पश्चिमोत्तानं कृत्वा च तडागाकृतिम् । तडागी सा परामुद्रा जरामृत्युविनाशिनी ।। 61 ।।
भावार्थ :- पश्चिमोत्तान आसन करके अपने उदर अर्थात् पेट को तालाब की आकृति के समान बना लेना तडागी मुद्रा कहलाती है । यह अति श्रेष्ठ मुद्रा बुढ़ापे ( वृद्धावस्था ) व मृत्यु का नाश करने वाली होती है । विशेष :- इस मुद्रा के सम्बंध में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न एक ही हो सकता है कि तडागी शब्द का क्या अर्थ होता है या तडागी शब्द किसके लिए प्रयोग किया जाता है ? जिसका उत्तर है तालाब । तडागी शब्द का अर्थ तालाब होता है । अपने पेट को तालाब की आकृति के समान बना लेने से ही इसे तडागी मुद्रा कहा जाता है ।
माण्डूकी मुद्रा विधि वर्णन
मुखं समुद्रितं कृत्वा जिह्वामूलं प्रचालयेत् । शनैर्ग्रसेदमृतं तन्माण्डूकीं मुद्रिकां विदुः ।। 62 ।।
भावार्थ :- अपने मुहँ को बन्द करके अन्दर ही जीभ के मूलभाग को आगे- पीछे करते हुए उसका चालन करें और धीरे-धीरे चन्द्रमा से स्त्रावित ( टपकने ) होने वाले अमृत रस का पान करें अर्थात् उसे पीना चाहिए । विद्वानों ने इसे माण्डूकी मुद्रा कहा है ।
माण्डूकी मुद्रा का फल
वलितं पलितं नैव जायते नित्य यौवनम् । न केशे जायते पाको य: कुर्यान्नित्यमाण्डूकीम् ।। 63 ।।
भावार्थ :- जो साधक नित्य प्रति माण्डूकी मुद्रा का अभ्यास करता है, न तो उसकी त्वचा सिकुड़ती है ( इकट्ठी होना ) और न ही उसकी त्वचा पर कभी झुर्रियां पड़ती हैं । उसका यौवन सदा बना रहता है अर्थात् वह सदा जवान बना रहता है । साथ ही कभी भी उसके बाल सफेद नहीं होते है । विशेष :- परीक्षा में इसके सम्बन्ध में पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा के अभ्यास से साधक की त्वचा पर झुर्रियां नहीं पड़ती और न ही त्वचा सिकुड़ती है ? जिसका उत्तर है माण्डूकी मुद्रा । या यह भी पूछा जा सकता है कि वलित और पलित नामक लाभ किस मुद्रा से प्राप्त होते हैं ? उत्तर है माण्डूकी मुद्रा ।
शाम्भवी मुद्रा विधि वर्णन
नेत्राञ्जनं समालोक्य आत्मारामं निरीक्षयेत् । सा भवेच्छाम्भवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।। 64 ।।
भावार्थ :- दोनों नेत्रों से अपनी दोनों भौहों के बीच में देखते हुए मन द्वारा आत्म चिन्तन करने को शाम्भवी मुद्रा कहा गया है । सभी शास्त्रों में इस मुद्रा को गुप्त बताया गया है ।
शाम्भवी मुद्रा का फल
वेदशास्त्रपुराणानि सामान्यगणिका इव । इयं तु शाम्भवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव ।। 65 ।। स एव आदिनाथश्च स च नारायण: स्वयम् । स च ब्रह्मा सृष्टिकारी यो मुद्रां वेत्ति शाम्भवीम् ।। 66 ।। सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्ययुक्तं महेश्वर । शाम्भवीं यो विजानीयात् स च ब्रह्म न चान्यथा ।। 67 ।।
भावार्थ :- सभी वेद, शास्त्र व पुराणों को शाम्भवी मुद्रा के सामने सामान्य गणिका ( साधारण वेश्या ) के समान माना है । जो सभी को आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं । जबकि शाम्भवी मुद्रा को अच्छे घर की बहु के समान गोपनीय माना जाता है । जो साधक शाम्भवी मुद्रा को जानता है, वह आदिनाथ अर्थात् भगवान शिव है, वह स्वयं नारायण का रूप है और वही सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा के समान है । हे महेश्वर! जो भी साधक इस शाम्भवी मुद्रा को जानता है वही साक्षात ब्रह्मा है, अन्यथा नहीं । यही पूर्ण रूप से सत्य और सत्य है । विशेष :- इस मुद्रा के वर्णन में ग्रन्थकार ने वेद, शास्त्रो व पुराणों को सामान्य गणिका ( वेश्या ) के समान बताया है और शाम्भवी मुद्रा को कुलवधू अर्थात् अच्छे घर की बहु के समान बताया है । यहाँ पर गणिका शब्द का प्रयोग केवल उदाहरण स्वरूप किया गया है । इसका अर्थ है कि वेद, शास्त्र व पुराण तो कही भी उपलब्ध हो सकते हैं या वह समान्यतः कहीं पर भी सहज रूप से मिल जाते हैं । लेकिन शाम्भवी मुद्रा का ज्ञान देने वाले विरले ( कुछ ही ) ही मिलते हैं । जिस प्रकार अच्छे घर की बहु अपनी सभी क्रियाओं को गुप्त रखती है लेकिन वेश्या अपनी किसी भी क्रिया को गुप्त नहीं रखती है । उसके विषय में सबको पता होता है कि वह क्या कार्य करती है । इसलिए ऋषि घेरण्ड ने यहाँ पर वेश्या का उदाहरण दिया है । यहाँ पर इस उदाहरण का वर्णन केवल कल्पना मात्र के लिए किया गया है । वास्तव में वेद, शास्त्र व पुराणों का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है । इस मुद्रा के सम्बन्ध में पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा को कुलवधू, अच्छे घर की बहु या फिर बड़े घर की बहु के समान कहा जाता है ? उत्तर है शाम्भवी मुद्रा ।
पञ्चधारणा मुद्रा वर्णन
कथिता शाम्भवी मुद्रा श्रृणुष्व पञ्चधारणाम् । धारणानि समासाद्य किं न सिद्धयति भूतले ।। 68 ।। अनेन नरदेहेन स्वर्गेषु गमनागमम् । मनोगतिर्भवेत्तस्य खेचरत्वं न चान्यथा ।। 69 ।।
भावार्थ :- इस प्रकार पिछले श्लोक में शाम्भवी मुद्रा का वर्णन किया गया है । अब पञ्च धारणा मुद्रा के वर्णन को सुनो । साधक द्वारा इन पंच धारणाओं को साधने ( प्राप्त करने से ) के बाद उसके लिए इस पृथ्वी पर कुछ भी अप्राप्य ( जिसको प्राप्त नहीं किया जा सकता ) नहीं रहता अर्थात् उसके लिए सब कुछ सम्भव होता है । इन धारणाओं में सिद्धि प्राप्त करने के बाद मनुष्य के शरीर का स्वर्ग में आवागमन ( आना- जाना ) उसके मन की गति के समान अर्थात् तीव्र गति वाला ही हो जाता है । इसके अलावा उसमें आकाश गमन की सिद्ध भी आ जाती है, इसके अलावा नहीं । विशेष :- पञ्च धारणाओं के विषय में सबसे पहले यही पूछा जा सकता है कि यह पञ्च धारणाएँ कौन- कौन सी हैं ? जिसका उत्तर है – पार्थिवी धारणा, आम्भसी धारणा, आग्नेयी धारणा, वायवीय धारणा व आकाशी धारणा ।
पार्थिवी धारणा मुद्रा विधि
यत्तत्त्वंहरितालदेशरचितं भौमं लकारान्वितं वेदास्तं कमलासनेन सहितं कृत्वा हृदि स्थायिनम् । प्राणांस्तत्र विलीय पञ्चघटिकांश्चित्ता त्विन्तां धारयेत् ऐषास्तम्भकरी भवेत् क्षितिजयं कुर्यादधोधारणा ।। 70 ।।
भावार्थ :- जिसका अन्त:प्रदेश अर्थात् मूलभाग ‘पीले’ रंग से रंगा हुआ भाग जो ‘लँ’ अर्थात् ‘लकार’ नामक बीज अक्षर से युक्त है । जिसका तत्त्व पृथ्वी है, जिसके चार कोण हैं । वेद जिसके हाथ हैं । उसमें कमल के फूल पर बैठे ब्रह्मा को अपने हृदय में धारण करते हुए उसका ध्यान करें । फिर अपनी प्राणवायु को शरीर के अन्दर लेकर उसे पाँच घटी अर्थात् दो घण्टे तक अन्दर ही रोककर चित्त में स्थिर करें । इसे स्तम्भकारी अधोधारणा भी कहा जाता है । इसका अभ्यास करने से साधक पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर लेता है । विशेष :- इस पार्थिवी धारणा के सम्बन्ध में काफी प्रश्न पूछे जा सकते हैं । जैसे – इस धारणा का तत्त्व कौनसा है ? उत्तर है पृथ्वी । इस धारणा का रंग कौनसा कहा गया है ? उत्तर है पीला । इसका बीज अक्षर क्या है ? उत्तर है ‘लँ’ अथवा लकार । इस धारणा का सम्बंध किस चक्र से होता है ? उत्तर है मूलाधार चक्र । इस मुद्रा का देवता किसे माना गया है ? उत्तर है ब्रह्मा । एक घटी कितने मिनट की होती है ? उत्तर है चौबीस ( 24 ) मिनट की ।
पार्थिवी धारणा मुद्रा का फल
पार्थिवीधारणामुद्रां य: करोति च नित्यशः । मृत्युञ्जय: स्वयं सोऽपि स सिद्धो विचरेद् भुवि ।। 71 ।।
भावार्थ :- जो भी साधक नित्य प्रति पार्थिवी धारणा मुद्रा का अभ्यास करता है । वह मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है और वह इस पृथ्वी पर सिद्ध पुरुष की भाँति विचरण ( घूमता ) करता रहता है ।
आम्भसी धारणा मुद्रा विधि वर्णन
शङ्खेन्दुप्रतिमञ्च कुन्दधवलं तत्त्वं किलालं शुभम् तत्पीयूषवकारबीजसहितं युक्तं सदा विष्णुना । प्राणांस्तत्र विनीय पञ्चघटिकांश्चित्तान्वितां धारयेत् ऐषादु: सहतापपापहरिणी स्यादाम्भसी धारणा ।। 72 ।।
भावार्थ :- इसका वर्ण शंख है जो चन्द्रमा की भाँति सुन्दर है, इसका रंग कुन्द के फूल की तरह ही सफेद है जिसमें अमृत का निवास है । यह जल तत्त्व का प्रतिनिधित्व करती है । इसका चक्र स्वाधिष्ठान है, इसका बीज अक्षर ‘वँ’ अर्थात् वकार है । विष्णु को इसका देवता कहा गया है । अपने प्राणवायु को शरीर के अन्दर भरकर उसे पाँच घटी अर्थात् दो घण्टे तक अन्दर ही रोककर रखते हुए चित्त में स्थिर करें । साधक के सभी दुःखों व पापों को दूर करने वाली इस आम्भसी धारणा को जलतत्त्व की धारणा भी कहते हैं । विशेष :- परीक्षा से सम्बंधित कुछ आवश्यक प्रश्नों का वर्णन इस प्रकार है :- इस धारणा का तत्त्व कौनसा है ? उत्तर है जल । इस धारणा का रंग कौनसा कहा गया है ? उत्तर है सफेद । इसका बीज अक्षर क्या है ? उत्तर है ‘वँ’ अथवा वकार । इस धारणा का सम्बंध किस चक्र से होता है ? उत्तर है स्वाधिष्ठान चक्र । इस मुद्रा का देवता किसे माना गया है ? उत्तर है विष्णु ।
आम्भसी धारणा मुद्रा का फल
आम्भसीं परमां मुद्रां यो जानाति स योगवित् । जले च गम्भीरे घोरे मरणं तस्य नो भवेत् ।। 73 ।। इयं तु परमा मुद्रा गोपनीया प्रयत्नतः । प्रकाशात् सिद्धिहानि: स्यात् सत्यं वच्मि च तत्त्वत्त: ।। 74 ।।
भावार्थ :- जो इस श्रेष्ठ आम्भसी मुद्रा को जानता है । उसे योग का ज्ञानी अथवा जानकार माना जाता है । इस मुद्रा के प्रभाव से साधक गहरे से गहरे जल में भी नहीं डूबता अर्थात् उसकी जल में डूबने से मृत्यु नहीं हो सकती । इस श्रेष्ठ मुद्रा को सदा प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिए । इसको सबके सामने करने से अथवा इसे सबको बताने से सिद्धि की हानि हो जाती है अर्थात् उसे सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती । यह पूर्ण रूप से सत्य है । विशेष :- आम्भसी मुद्रा के लाभ में पूछा जा सकता है कि इसका मुख्य लाभ क्या होता है ? जिसका उत्तर है इससे साधक गहरे से गहरे पानी में भी नहीं डूबता अथवा उसकी कभी भी पानी में डूबने से मृत्यु नहीं होती है ।
आग्नेयी धारणा मुद्रा विधि वर्णन
यन्नाभिस्थितमिन्द्रगोपसदृशं बीजं त्रिकोणान्वितं तत्त्वं तेजमयं प्रदीप्तमरुणं रुद्रेण यत् सिद्धिदम् । प्राणांस्तत्र विनीय पञ्चघटिकांश्चित्तान्वितां धारयेत् ऐषा कालगभीर भीतिहरणी वैश्वानरी धारणा ।। 75 ।।
भावार्थ :- यह नाभि प्रदेश में स्थित मुद्रा है, जिसके कारण यह अग्नि तत्त्व का प्रतिनिधित्व करती है । इसका रंग अग्नि के ही समान लाल होता है । यह त्रिकोण आकृति वाली है, जिसका बीजमन्त्र ‘रँ’ होता है । इस आग्नेयी मुद्रा का तत्त्व तेजमय अर्थात् सूर्य की तरह दीप्तिमान है । रुद्र इसके देवता कहे जाते हैं । इसका चक्र मणिपुर है , जो हमारी नाभि में ही स्थित होता है । चित्त के साथ अपने प्राणों को शरीर के अन्दर भरकर उसे पाँच घटी अर्थात् दो घण्टे तक अन्दर ही रोककर रखते हुए चित्त में स्थिर करें । इस प्रकार काल अर्थात् मृत्यु को दूर करने वाली इस मुद्रा को वैश्वानरी मुद्रा भी कहा जाता है । विशेष :- परीक्षा से सम्बंधित कुछ आवश्यक प्रश्नों का वर्णन इस प्रकार है :- इस धारणा का तत्त्व कौनसा है ? उत्तर है अग्नि । इस धारणा का रंग कौनसा कहा गया है ? उत्तर है लाल । इसका बीज अक्षर क्या है ? उत्तर है ‘रँ’ । इस धारणा का सम्बंध किस चक्र से होता है ? उत्तर है मणिपुर चक्र । इस मुद्रा का देवता किसे माना गया है ? उत्तर है रुद्र । इस मुद्रा को किस अन्य नाम से जाना जाता है ? उत्तर है वैश्वानरी नाम से ।
आग्नेयी धारणा मुद्रा का फल
प्रदीप्ते ज्वलिते वह्नौ यदि पतित साधक: । एतन्मुद्राप्रसादेन स जीवति न मृत्युभाक् ।। 76 ।।
भावार्थ :- आग्नेयी मुद्रा का अभ्यास करने वाला साधक यदि तेज जलती हुई अग्नि में भी गिर जाए तो भी वह इस मुद्रा के प्रभाव से जीवित रहता है अर्थात् अग्नि उसके शरीर को जला नहीं सकती । तेज अग्नि में पड़ने पर भी उसकी मृत्यु नहीं होती है । विशेष :- आग्नेयी मुद्रा से एक ही लाभ होता है कि अग्नि तत्त्व भी उसके शरीर को नहीं जला सकता । यह लाभ सुनने में अवश्य ही अटपटा सा लगता है । लेकिन यदि कुछ तत्थों पर विचार किया जाए तो यह सम्भव लगने लगेगा । आप सभी ने हमारे देश व अन्य देशों के बहुत सारे ऐसे इन्सानों को देखा होगा अथवा उनके बारे में सुना होगा कि वह नगें पैर जलती हुई अग्नि पर आसानी से चलते हैं । प्रचण्ड रूप से जलती हुई अग्नि भी उसके शरीर को नहीं जला पाती है । इस प्रकार के बहुत सारे वास्तविक वीडियो आपको यूट्यूब पर भी देखने को मिल जाएंगे । अतः इस साधना को करने से साधक के शरीर में वह सामर्थ्य आ जाता है कि वह अपने शरीर को अत्यधिक तापमान पर भी सुरक्षित रख सकता है । ठीक ऐसा ही वह अत्यधिक कम तापमान पर भी अपने शरीर को सन्तुलित कर लेते हैं । इसके लिए केवल अच्छे अभ्यास की आवश्यकता होती है ।
वायवीय धारणा मुद्रा विधि वर्णन
यद्भिन्नाञ्जनपुञ्जसन्निभमिदं धूम्रावभासं परं तत्त्वं सत्त्वमयं यकार सहितं यत्रेश्वरो देवता । प्राणां विनीय पञ्चघटिकांश्चित्तान्वितां धारयेत् ऐषा खे गमनं करोति यमिनां स्याद्वायवी धारणा ।। 77 ।।
भावार्थ :- इस मुद्रा का वर्ण अन्य से थोड़ा अलग अर्थात् काजल के चूर्ण की तरह अर्थात् धुएँ के रंग जैसा होता है । यह वायु तत्त्व का प्रतिनिधित्व करती है । इसका बीजमन्त्र ‘यँ’ अर्थात् यकार है । इसका चक्र अनाहत होता है, जो हमारे हृदय प्रदेश में स्थित होता है । ईश्वर इसके देवता कहे जाते हैं । अपने प्राणों को शरीर के अन्दर भरकर उन्हें पाँच घटी अर्थात् दो घण्टे तक शरीर के अन्दर ही रोकते हुए चित्त में उसका ध्यान करना चाहिए । इसे वायवीय धारणा कहते हैं । ऐसा करने से साधक को आकाश में घूमने की सिद्धि प्राप्त हो जाती है । विशेष :- परीक्षा से सम्बंधित कुछ आवश्यक प्रश्नों का वर्णन इस प्रकार है :- इस धारणा का तत्त्व कौनसा है ? उत्तर है वायु । इस धारणा का रंग कौनसा कहा गया है ? उत्तर है धुएँ जैसा । इसका बीज अक्षर क्या है ? उत्तर है ‘यँ’ अथवा यकार । इस धारणा का सम्बंध किस चक्र से होता है ? उत्तर है अनाहत चक्र । इस मुद्रा का देवता किसे कहा जाता है ? उत्तर है ईश्वर । साथ ही इससे आकाश में घूमने की शक्ति अथवा सिद्धि प्राप्त होती है ।
वायवीय धारणा मुद्रा का फल
इयं तु परमा मुद्रा जरामृत्युविनाशिनी । वायुना म्रियते नापि खे च गतिप्रदायिनी ।। 78 ।।
भावार्थ :- इस वायवीय मुद्रा को अति विशिष्ट मुद्रा माना जाता है । यह बुढ़ापे व मृत्यु का नाश करने वाली मुद्रा कही जाती है । इसके अभ्यास से साधक को आकाश में घूमने की शक्ति प्राप्त होती है । इसके अलावा कभी भी साधक की मृत्यु वायु के वेग से नहीं होती है । विशेष :- इस मुद्रा के प्रभाव से साधक को आकाश में घूमने की शक्ति प्राप्त होती है साथ ही उसकी मृत्यु कभी भी वायु के वेग ( तेज गति ) से नहीं होती ।
वायवीय धारणा मुद्रा प्रयोग में सावधानी
शठाय भक्तिहीनाय न देया यस्य कस्यचित् । दत्ते च सिद्धिहानि: स्यात् सत्यं वच्मि च चण्ड ते ।। 79 ||
भावार्थ :- इस वायवीय धारणा मुद्रा का उपदेश किसी भी दुष्ट, भक्तिहीन अर्थात् जिसमें भक्ति भावना न हो व चाहे जिसको ( किसी को भी ) नहीं करना चाहिए । ऐसा करने से अर्थात् अयोग्य व्यक्ति को इसका ज्ञान देने से साधक की सभी सिद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं । इसमें किसी तरह का कोई सन्देह अर्थात् शक नहीं है । विशेष :- इस मुद्रा के सम्बन्ध में यह पूछा जा सकता है कि किस प्रकार के व्यक्ति को इसका मुद्रा का ज्ञान अथवा उपदेश नहीं देना चाहिए ? उत्तर है दुष्ट, भक्ति रहित व चाहे जिसको अर्थात् किसी भी राह चलते को इसका ज्ञान नहीं देना चाहिए ।
आकाशीय धारणा मुद्रा विधि वर्णन
यत् सिन्धौ वरशुद्धवारिसदृशं व्योमं परं भासितं तत्त्वं देवसदाशिवेन सहितं बीजं हकारान्वितम् । प्राणां विनीय पञ्चघटिकांश्चित्तान्वितां धारयेत् ऐषा मोक्षकपाटभेदनकरी कुर्यान्नभोधारणा ।। 80 ।।
भावार्थ :- इस आकाशीय धारणा मुद्रा का वर्ण अर्थात् रंग सिन्धु नदी के जल जैसा होता है । यह आकाश तत्त्व का प्रतिनिधित्व करती है । यह इसका बीजमन्त्र ‘हँ’ अथवा हकार होता है । इसके देवता स्वयं भगवान शिव हैं । शरीर में इसका स्थान कण्ठ कहा जाता है । जिससे इसका चक्र विशुद्धि होता है । प्राणों को शरीर के अन्दर भरकर उन्हें पाँच घटी अर्थात् दो घण्टे तक शरीर के अन्दर ही रोककर रखते हुए चित्त में स्थिर करें । इस प्रकार यह आकाशीय धारणा मुद्रा मोक्ष के द्वार का भेदन करने वाली कही गई है । इसे नभो धारणा भी कहा जाता है । विशेष :- परीक्षा से सम्बंधित कुछ आवश्यक प्रश्नों का वर्णन इस प्रकार है :- इस धारणा का तत्त्व कौनसा है ? उत्तर है आकाश । इस धारणा का रंग कौनसा कहा गया है ? उत्तर है शुद्ध जल जैसा । इसका बीज अक्षर क्या है ? उत्तर है ‘हँ’ अथवा हकार । इस धारणा का सम्बंध किस चक्र से होता है ? उत्तर है विशुद्धि चक्र । इस मुद्रा का देवता किसे कहा जाता है ? उत्तर है शिव । इस मुद्रा को किस अन्य नाम से भी जाना जाता है ? उत्तर है नभो धारणा मुद्रा । इसे मोक्ष के द्वार का भेदन करने वाली मुद्रा कहा जाता है ।
आकाशीय धारणा मुद्रा का फल
आकाशीयधारणां मुद्रां यो वेत्ति सैव योगवित् । न मृत्युर्जायते तस्य प्रलये नाव सीदति ।। 81 ।।
भावार्थ :- आकाशीय धारणा मुद्रा को जानने वाले को योग का ज्ञानी अथवा जानकर माना जाता है । उसकी कभी मृत्यु नहीं होती है और वह प्रलय अर्थात् सृष्टि के विनाश के समय भी दुःखी नहीं होता है । विशेष :- आकाशीय मुद्रा के जानने वाले को ज्ञानी माना जाता है । इसके अलावा उसकी मृत्यु भी नहीं होती और न ही वह प्रलयकाल में दुःखी होता है ।
अश्वनी मुद्रा विधि व फल वर्णन
आकुञ्चयेद् गुदाद्वारं प्रकाशयेत् पुनः पुनः । सा भवेदश्विनी मुद्रा शक्तिप्रबोधकारिणी ।। 82 ।। अश्वनी परमा मुद्रा गुह्यरोगविनाशिनी । बलपुष्टिकरी चैव अकालमरणं हरेत् ।। 83 ।।
भावार्थ :- गुदाद्वार अथवा गुदा को बार- बार सिकोड़ना ( अन्दर खींचना ) व फैलाना ( बाहर की ओर धकेलना ) अश्वनी मुद्रा कहलाती है । अश्वनी मुद्रा कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने का काम करती है । यह विशिष्ट मुद्रा सभी गुप्त रोगों को नष्ट करती है और शरीर को बलवान व विकसित ( पोषण करने वाली ) करने वाली होती है । इसके अलावा इसका अभ्यास करने से साधक कभी भी अकाल मृत्यु ( कम उम्र में ) नहीं मरता है ।
पाशिनी मुद्रा विधि वर्णन
कण्ठपृष्ठे क्षिपेत्पादौ पाशवद् दृढबन्धनम् । सा एव पाशिनी मुद्रा शक्ति प्रबोधकारिणी ।। 84 ।। पाशिनी महती मुद्रा बलपुष्टिविधायिनी । साधनीया प्रयत्नेन साधकै: सिद्धिकाङ्क्षिभि: ।। 85 ।।
भावार्थ :- दोनों पैरों को अपनी गर्दन के पीछे की ओर मजबूती के साथ स्थापित करने को पाशिनी मुद्रा कहते हैं । यह पाशिनी मुद्रा भी हमारी कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करती है । यह पाशिनी नामक श्रेष्ठ मुद्रा शरीर को पोषित करते हुए बल की वृद्धि करती है । जो साधक योग में सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं । उन्हें इस पाशिनी मुद्रा को पूरे प्रयत्न के साथ करना चाहिए ।
काकी मुद्रा विधि व फल वर्णन
काकचञ्चुवदास्येन पिबेद्वायुं शनै: शनै: । काकीमुद्रा भवेदेषा सर्वरोगविनाशिनी ।। 86 ।। काकीमुद्रा परा मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता । अस्या: प्रसादमात्रेण न रोगी काकवद् भवेत् ।। 87 ।।
भावार्थ :- अपने मुख की आकृति को कौवे की चोंच की तरह बनाकर उससे धीरे- धीरे वायु को पीना काकीमुद्रा कहलाती है । यह काकीमुद्रा सब रोगों को नष्ट करने वाली होती है । काकीमुद्रा नामक इस श्रेष्ठ मुद्रा को सभी तन्त्र ग्रन्थों में गुप्त बताया है । इसका अभ्यास करने से साधक कौवे की तरह निरोगी हो जाता है । विशेष :- काकीमुद्रा का सम्बंध कौवे से होता है । मुख की आकृति को कौवे के समान बना लेने से ही इसका नाम काकीमुद्रा पड़ा है । इस मुद्रा से हमें एक बात का और भी ज्ञान होता है कि कौवा पक्षी कभी भी बीमार नहीं पड़ता है । इसलिए कहा गया है कि इसका अभ्यासकरने से व्यक्ति कौवे की तरह ही निरोगी बन जाता है ।
मातङ्गिनी मुद्रा विधि व फल वर्णन
कण्ठमग्ने जले स्थित्वा नासाभ्यां जलमाहरेत् । मुखान्निर्गमयेत् पश्चात् पुनर्वक्त्रेण चाहरेत् ।। 88 ।। नासाभ्यां रेचयेत् पश्चात् कुर्यादेवं पुनः पुनः । मातङ्गिनी परा मुद्रा जरामृत्युविनाशिनी ।। 89 ।। विरले निर्जने देशे स्थित्वा चैकाग्रमानस: । कुर्यान्मातङ्गिनीं मुद्रां मातङ्ग इव जायते ।। 90 ।। यत्र यत्र स्थितोयोगी सुख मत्यन्तमश्नुते । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन साधयेन्मुद्रिकां पराम् ।। 91 ।।
भावार्थ :- इतने गहरे पानी में खड़े होना चाहिए जिससे कि पानी कण्ठ अर्थात् गले तक आ जाए । इसके बाद दोनों नासिका छिद्रों से पानी को पीकर उसे मुहँ द्वारा बाहर निकाल दें । इसके बाद मुहँ द्वारा पानी पीकर उसे नासिका के दोनों छिद्रों द्वारा बाहर निकाल देना चाहिए । यह मातङ्गिनी मुद्रा कहलाती है । इस श्रेष्ठ मुद्रा का बार- बार अभ्यास करने से यह बुढ़ापे व मृत्यु को नष्ट करती है । इस मुद्रा का अभ्यास ऐसे एकान्त स्थान पर करना चाहिए जहाँ पर कोई अन्य व्यक्ति न हो । इस मुद्रा को करने से साधक भी हाथी के समान अधिक बल वाला हो जाता है । इस मुद्रा का अभ्यास करने वाला योगी जहाँ पर भी निवास करता है अर्थात् वह जहाँ पर भी रहता है । वहीं पर वह अत्यंत सुख को ही भोगता है । इसलिए साधक को पूरे मनोयोग के साथ इस श्रेष्ठ मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- इस मुद्रा के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक प्रश्न है जिनको परीक्षा में पूछा जा सकता है । जैसे – मातङ्गी मुद्रा का सम्बंध किस प्राणी से है ? उत्तर है हाथी से । कौन सी षट्कर्म क्रिया की विधि मातङ्गी मुद्रा से मिलती जुलती है ? उत्तर है व्युत्क्रम कपालभाति । इस मुद्रा को करने से किसके समान बल की प्राप्ति होती है ? उत्तर है हाथी के समान बल की ।
भुजङ्गिनी मुद्रा विधि वर्णन
वक्त्रं किञ्चित् सुप्रसार्य चानिलं गलया पिबेत् । सा भवेद् भुजगी मुद्रा जरामृत्युविनाशिनी ।। 92 ।। यावच्च उदरे रोगा अजीर्णादि विशेषतः । तत् सर्वं नाशयेदाशु यत्र मुद्रा भुजङ्गिनी ।। 93 ।।
भावार्थ :- अपने मुहँ को थोड़ा सा खोलकर गले से वायु को पीना चाहिए अर्थात् वायु को शरीर के अन्दर लेकर जाएं । यह भुजंगिनी मुद्रा कहलाती है । इससे बुढ़ापा व मृत्यु दोनों का ही नाश होता है । इस मुद्रा के प्रभाव से अजीर्ण ( अपच ) आदि जो प्रमुख रोग होते हैं । वह सभी के सभी नष्ट हो जाते हैं । विशेष :- भुजङ्गिनी मुद्रा का सम्बंध साँप से होता है । जिस प्रकार साँप अपने मुहँ को थोड़ा सा खोलकर गले से श्वास लेता है । ठीक उसी प्रकार इस मुद्रा में भी साधक मुहँ को खोलकर गले से श्वास ग्रहण करता है । इसलिए इसे भुजङ्गिनी मुद्रा कहते हैं । यह सभी अजीर्ण रोगों का नाश करती है ।
सभी मुद्राओं का फल
इदं तु मुद्रापटलं कथितं चण्ड ते शुभम् । वल्लभं सर्वसिद्धानां जरामरणनाशनम् ।। 94 ।।
भावार्थ :- महर्षि घेरण्ड राजा चण्डकापालिक को कहते हैं कि मैंने मुद्राओं के विषय में वर्णन करने वाले अध्याय का वर्णन तुम्हारे सामने किया है । यह सभी मुद्राएँ सभी विद्वानों अथवा सिद्ध पुरुषों को अत्यंत प्रिय होती है । यह सभी मुद्राएँ बुढ़ापे व मृत्यु को दूर करने वाली होती हैं । विशेष :- इन सभी मुद्राओं को सभी सिद्ध पुरुषों की प्रिय बताया है । साथ ही सभी मुद्राओं से बुढ़ापा व मृत्यु दोनों ही दूर होते हैं ।
मुद्राओं की गोपनीयता
शठाय भक्तिहीनाय न देयं यस्य कस्यचित् । गोपनीयं प्रयत्नेन दुर्लभं मरुतामपि ।। 95 ।।
भावार्थ :- इन सभी मुद्राओं को अत्यंत गोपनीय बताया गया है । इन मुद्राओं का ज्ञान कभी भी किसी दुष्ट, भक्तिहीन ( भक्ति रहित ), और चाहे जिसे अर्थात् किसी भी अयोग्य व्यक्ति को कभी भी नहीं देना चाहिए । विशेष :- इन मुद्राओं की गोपनीयता के विषय में पूछा जा सकता है कि किन- किन व्यक्तियों को इनका ज्ञान नहीं देना चाहिए ? जिसका उत्तर है दुष्ट व्यक्ति, भक्तिहीन या भक्ति रहित व किसी भी अनजान अथवा अयोग्य व्यक्ति को इनका ज्ञान नहीं देना चाहिए ।
मुद्रा के अधिकारी साधक
ऋजवे शान्तचित्ताय गुरुभक्तिपराय च । कुलीनाय प्रदातव्यं भोगमुक्तिप्रदायकम् ।। 96 ।।
भावार्थ :- विनम्रतापूर्वक व्यवहार करने वाले को, शान्त चित्त वाले को, गुरु भक्त को, अच्छे कुल अर्थात् अच्छे परिवार से सम्बन्ध रखने वालों को ही इन भोग व मुक्ति प्रदान करने वाली मुद्राओं का ज्ञान देना चाहिए । विशेष :- परीक्षा में पूछा जा सकता है कि मुद्राओं का ज्ञान किन- किन व्यक्तियों को देना चाहिए ? जिसका उत्तर है विनम्र स्वभाव, शान्त चित्त, गुरु भक्त व अच्छे कुल अथवा परिवार वाले व्यक्तियों को ।
सभी मुद्राओं के मुख्य लाभ
मुद्राणां पटलं ह्येतत् सर्वव्याधिविनाशकम् । नित्यमभ्यासशीलस्य जठराग्नि विवर्धनम् ।। 97 ।। न तस्य जायते मृत्युर्नास्य जरादिकं तथा । नाग्निजलभयं तस्य वायोरपि कुतो भयम् ।। 98 ।। कास: श्वास: पलीहकुष्ठं श्लेष्मरोगाश्च विंशति: । मुद्राणां साधनाच्चैव विनश्यन्ति न संशय: ।। 99 ।। बहुना किमीहोक्तेन सारं वच्मि च दण्ड ते । नास्ति मद्रासमं किञ्चित् सिद्धिदं क्षितिमण्डले ।। 100 ।।
भावार्थ :- यह मुद्राओं का पूरा समूह अर्थात् यह सभी मुद्राएँ सभी रोगों को नष्ट करती हैं । जो साधक इनका नित्यप्रति अभ्यास करता है उसकी जठराग्नि ( पाचन तंत्र मजबूत ) भी प्रदीप्त होती है । वह न कभी बूढ़ा होता है और न ही उसकी कभी मृत्यु होती है । वह कभी भी अग्नि, जल व वायु से भयभीत नहीं होता । इन मुद्राओं का अभ्यास करने से खाँसी, अस्थमा, प्लीहा ( धातुओं का मूत्र मार्ग से बहना ), कुष्ठ अर्थात् चर्म रोग और बीस प्रकार के कफ से सम्बंधित रोग निश्चित रूप से नष्ट हो जाते हैं । इसमें किसी तरह का कोई सन्देह नहीं है । हे चण्डकापालिक! तुम्हे मैं और अधिक क्या बताऊँ ? मैं तुम्हे इसका सार बताता हूँ कि पूरी पृथ्वी पर इन मुद्राओं के समान सिद्धि प्रदान करवाने वाला अन्य कुछ भी नहीं है । विशेष :- ऊपर वर्णित सभी श्लोक परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी हैं । अतः विद्यार्थी इन्हें ध्यान से पढ़ें ।
।। इति तृतीयोपदेश: समाप्त: ।।
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